Home नया रावण जब था अपने सर्वनाश के करीब

मैंने उसे देखा वो एकदम से दीन हीन सा पड़ा अपने पतन को देख रहा था..सर्वनाश के करीब था वो
मुझे उस पर दया आ गयी तो प्रश्न किया …
तुम जीवित कैसे हो..?
किसका बल तुम्हें जीवित रखे हुए है ..?
तो वह बोला : अहंकार ही मेरा बल है , उसके बलपर मैं कितनी भी दीन हीन अवस्था में रहूँ , कितना भी मेरा पतन क्यों न हो जाये पर मैं जीवित रहूंगा..!
मुझे लगा था वो कहेगा कि मेरे पुण्य के कारण मैं अभी जीवित हूँ पर उसने तो रचना के तत्व को ही बता दिया।
रचयिता ने मानस से बुद्धिज्ञान (सरस्वती ) को जन्म दिया लेकिन रचयिता ने अपनी ही बुद्धि को अज्ञान से ढककर मोह में
संलिप्त कर लिया ….सरस्वती को जन्म देने वाला ही सरस्वती के मोह में बंध गया, खुद को ही अंतिम मान बैठा…!
अपनी ही बुद्धिज्ञान(सरस्वती) को खुद से अलग जानकर उसके मोहपाश में बंध गया ।
ब्रम्हा का सरस्वती के प्रति मोह देख कर उस परम सच्चिदानंद ने रचयिता से कहा हे कुम्हार तुम्हारी सरस्वती तुम अलग नहीं है , तुम इसके प्रति मोह क्यों पाल रहे हो…?
हे रचयिता तुम जन्म से इतना मोह कर बैठे हो तो मृत्यु कैसे लिखोगे ..?
हे ब्रम्हा ..! तुम्हें अपने ही ज्ञान पर अहंकार नहीं होना चाहिए क्योंकि भौतिक ज्ञान की रचना तुमने ही की है ..?
यदि रचनाकार अपनी ही किसी रचना पर मोह कर बैठा तो वो दूसरी रचना कैसे कर पायेगा ..?
ब्रम्हा के सत्व गुण से जन्मी सरस्वती पर ब्रम्हा के रजोगुण ने अधिकार करना प्रारंभ कर दिया। ब्रम्हा नष्ट हो रहे थे..!
उस सदाशिव ने जब देखा कि सृष्टि की रचना होने से पहले ही ब्रम्हा नष्ट हो रहें हैं तो सदाशिव ने ब्रम्हा के रजोगुण पर सत्वगुण
से भरे ज्ञान रूपी त्रिशूल जो सत रज तम तीनो का ही विनाशक है से प्रहार कर दिया, ब्रम्हा को जैसे ही आत्म ज्ञान हुआ वो निर्विकार हो गए..!
ब्रम्हा के निर्विकार होते ही ब्रम्हा के विलग हुए मुख ने अहंकार को जन्म दिया जबकि निर्विकार हो रहे ब्रम्हा ने सरस्वती के माध्यम से आत्मज्ञान को जन्म दिया। आत्मज्ञान शिव के त्रिशूल के समान है जो समस्त बंधनो को काटकर मनुष्य को ब्रम्हलीन बना देता है और अर्ध ज्ञान अहंकार की सहयोगिनी है जो प्रवाद और विवाद को जन्म देती है ।
आत्मज्ञान से अहंकार के पुत्रों ने बैर ले लिया जिससे सृष्टि स्वयं ही चलायमान होने लगी। अहंकार के पुत्र निरंतर ही अपना विस्तार करते चले जा रहें हैं जिससे यह ब्रम्हांड अभी भी प्रसार करता जा रहा था..!
ब्रम्हा के विलग हुए मुख ने सृष्टि में अपना प्रभाव छोड़ना शुरू कर दिया। उस विलोम शक्ति ने मनुष्यों को अपने प्रभाव में ले लिया जिससे मनुष्य असुरत्व को प्राप्त हुआ.!
मनुष्य अहंकार के सहयोग से उन्मत्त हुआ ..!
जैसे ही 10सों इंद्रियों पर से आत्मा का अंकुश कम हो गया वैसे ही आत्मा ने उसे सावधान कड़ते हुए कहा :
हे मनुष्य इन्द्रिय सुख की अति लालसा उसे उसके पतन की ओर ले जाती है जिससे वह अपनो और दूसरों को रुलाने वाला रावण बन जाता है ,
शक्ति को ही सत्य मानने वाला सहसबाहु बन जाता है और सरस्वती से बैर करना उस पर शासन करना उसका परम ध्येय बन जाता है ..!
खुली इंद्रियों को रखने वाले रावण की कुंडलिनी शक्ति जो सुषुप्त हो चुकी थी उसकी नाभि में उसे जाग्रत करने के लिए “राम ” रावण की नाभि में अहंकार रूपी अमृत कवच को सूखा देते हैं जिससे मोह का नाश हो जाता है और ब्रम्हा पुनः जाग्रत हो जाता है।
शिव ही राम रूप में ब्रम्हा के अहंकारी मुख रूपी रावण के दसों सिर को काटते हैं , शिव ही परशुराम रूप में सहसबाहु की अहंकारी भुजाओं को काटते हैं जिससे ब्रम्हा पुनः अपने मूल रूप को प्राप्त करते हैं।
शिव ही मोक्ष और आत्मज्ञान प्राप्त करने का मार्ग बताने वाले आचार्य हैं जो मनुष्य की आत्मा को माया से मुक्त करवाते हैं।

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