भरद्वाज! ऋग्वैदिक काल के सबसे प्राचीन ऋषियों में से एक ऋषि पीठ।
यह मेरा गोत्रनाम भी है, बहरहाल यह चर्चा रामायण के एक प्रसंग पर आधारित है कि जब भरत श्रीराम को मनाने जाते हैं तो महर्षि भरद्वाज उनका और समस्त सेना का आतिथ्य पूर्ण वैभव के साथ करते हैं।
उनका आश्रम किसी विशाल गाँव से कम और राजा से कम समृद्ध न रहा होगा
उनके ऐश्वर्य का कारण बहुत साधारण है।
उपजाऊ भूमि, सहस्त्रों गायों की गौशाला, सैकड़ों शिष्य व आश्रम के अंतेवासी जो ज्ञान साधना व आध्यात्मिक साधना के साथ साथ खेतों में पसीना भी बहाते थे।
ऋषि तपस्या करते थे पर साथ ही अश्वारोहण भी करते थे।
ऋषि शिक्षा देते थे पर साथ ही वैज्ञानिक प्रयोग भी करते थे।
ऋषि साधनाएं करते थे पर साथ ही खेतों में पसीना भी बहाते थे।
केवल भरद्वाज कोई अपवाद नहीं थे बल्कि वसिष्ठ, विश्वामित्र, अगस्त्य , जमदग्नि, परशुराम, और्व, वाल्मीकि आदि सभी मंजे हुये योद्धा भी थे और ज्ञान को समर्पित आध्यात्मिक शलाका पुरुष भी जिनका ओजस्वी वर्णन मैंने अपनी पुस्तक ‘अनसंग हीरोज-#इंदु_से_सिंधु में किया है।
लेकिन जब तथागत ने संघ की नींव रखी तो वे यह नहीं जानते थे कि वे बैठ कर खाने वाले चरबीगोलों की फौज और परम्परा स्थापित कर रहे हैं।
ऋषियों का बनाया स्वअनुशासन टूट गया।
भगवत्पाद आदिगुरु शंकराचार्य ने बौद्धों की इस परंपरा को नहीं बल्कि प्राचीन ऋषियों के संतुलित जीवन वाले मठों की स्थापना का आदर्श रखा था।
यही कारण है कि बद्रीनाथ क्षेत्र में स्वयं हाथ में दंड लेकर लुटेरों पर आक्रमण का नेतृत्व करते, कापालिकों को निर्मम मृत्युदंड दिलवाते, पूज्य भगवत्पाद की वज्र जैसी देहयष्टि उनके वेदांत दर्शन की भांति सुंदर और कठोर थी क्योंकि उन्होंने अपनी कम आयु के ज्ञान के कारण पैदल चालन से ही ऋषियों के शारीरिक श्रम के आदेश का अनुपालन किया।
लेकिन परवर्ती मठाधीशों ने सुधन्वा चौहान के सांकेतिक प्रतीकों के राजसी भोगों का वास्तविक उपभोग शुरू कर इन मठों की मूल भावना का विध्वंस कर दिया।
आज यदि शांकर मठों सहित सभी मठों में उतनी ही संपत्ति रखने का विधान हो जो उन्होंने स्वयं शारीरिक श्रम से कमाई हो और कुलपति यानि मठाधीश को प्राचीन ऋषियों की भांति प्रतिदिन चार घंटे शारीरिक श्रम अनिवार्य कर दिया जाए तो 90% गेरुवे अगले दिन गंगा में विसर्जित हो जाएंगे।
इसीलिये एक सरल तरकीब निकाली गई कि ऋषियों के वैभव दरअसल उनके तपोबल के चमत्कार थे।
पब्लिक खुश भी हो गई और उसकी चमत्कार को नमस्कार वाली ग्रंथि भी संतुष्ट हो गई।
दरअसल वैदिक ऋषियों की बात तो सब करते हैं लेकिन उनके शारीरिक श्रम के उपदेश से मठाधीशों को ही सबसे ज्यादा डर लगता है।
शांकरपीठ ही नहीं सारी पीठों पर झगड़े, मुकदमे, हत्याओं के पीछे असली कारण भौतिक संपदा मात्र है लेकिन शांकर पीठों पर जन्मनाजातिगत बाध्यता ने जो निःसन्देह बाद में प्रक्षिप्त की गई, उन्हें जन्मनाजातिवाद का प्रतीक भी बना दिया है।
भोगो भाई भोगो, आप वैभव भोगो।
हिंदुत्व को आम हिंदू जी भी लेगा, संभाल भी लेगा।