प्रतिहारों के स्वर्णयुग के पश्चात से हिंदू पिछले हजार वर्ष से अतियों में झूलते रहे हैं और संतुलन की कला भूल चुके हैं।
पराग अग्रवाल बनाम अंबानी-अडानी अर्थात नौकरी बनाम स्वउद्यमिता भी एक ऐसा ही विषय है।
न तो पराग अग्रवाल को हिंदुओं व हिंदुत्व को लेना देना है और न अंबानी-अडानी को।
न पराग अग्रवाल बिना अपने मालिक के एक कदम उठा सकता है और न ही अंबानी-अडानी ‘लाभ’ के बिना एक आदमी को रोटी खिलाएंगे।
सफलता के उच्च शिखर पर बैठकर अपने मजहब के विषय में मुस्लिम तो सोच सकते हैं और थोड़ा बहुत ईसाई भी लेकिन हिंदू कभी नहीं।
पराग अग्रवाल ने तो आते ही अपनी फितरत दिखा दी लेकिन अंबानी-अडानी?
अंबानी-अडानी करोड़ों रुपये के सोने का मुकुट तिरुपति चढ़ा आएंगे लेकिन हिमालय, हमदर्द के मालिकों की तरह खुले तौर अपने समानधर्मियों को ही
नौकरियों में प्राथमिकता न देंगे।
वैसे भी दोंनों ही कारपोरेट कल्चर के उत्पाद हैं जिनका लक्ष्य मानवमात्र का ‘दोहन’ करना है जिनके विषय में हिटलर ने ‘माइन काम्फ’ में और महामात्य विष्णुगुप्त चाणक्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में लिखा था कि राज्य को व्यापारियों को सदैव नियंत्रण में रखना चाहिए।
आज मोदी जैसे सशक्त राजपुरुष के कारण ये नियंत्रण में हैं लेकिन मनमोहन सिंह जैसा कोई आ गया तो सौ करोड़ हिंदू इनके उत्पादक मजदूर भर बनकर रह जाएंगे।
कम्यूनिस्टों का साम्यवाद जितना बड़ा छलावा है उतना बड़ा छलावा कारपोरेट से मानवता का उत्थान है।
दोंनों ही मानवता को गुलामी का उपहार देते हैं एक बंदूक के दम पर और एक ‘सैलरी’ के दम पर।