एक दुकान पर बैठा था। जहां वेटिंग की वजह से देर तक बैठना पड़ा। मुझे प्यास महसूस हुयी। एक्टिवा में पड़ी पानी की बोतल निकाला। दो घूंट गटका… सामने एक तख्त पर रख दिया। दस मिनट बाद एक ‘प्यासे सज्जन’ आये। दुकानदार से कुछ अपने मतलब का पूछा… और बोतल उठाकर उससे अंतरंग होने लगे। अभी मैं कुछ सोचता.. समझता..बोलता उससे पहले बोतल के भीतर की चीज उनके कंठ से उतरकर न जाने कहाँ जाने लगी। मैं लपककर आगे बढ़ा और भाईसाहब को आवाज़ लगाकर कहा – “यदि दो घूंट बच जाये तो मेरे लिये भी बचा लिजियेगा।” हांलाकि मैंने उनसे यह दावा नहीं किया कि अमुक बोतल मेरी है लेकिन पानी कंठ से उदरस्थ करने के उपरांत उनके ज्ञान चक्षुओं नें कुछ इशारा किया होगा। वो शर्मिंदा होकर बोले “भैया यह आपकी बोतल है??”
मैंने कहा-“थी! यह हुआ करती थी!! तब जब उसमें जवानी थी… रवानी थी कुछ कर गुजरने की ताकत, हिम्मत और कुव्वत थी..लेकिन अब वो लगभग खाली हो चुकी है…अब इसमें उतनी ही बची है जितने में अंगुली डुबोकर नोट गिनी जा सके।
‘प्यासे सज्जन’ अच्छे व्यक्ति थे। जो भी बुराई थी वो प्यास लेकर आई थी। वो लगातार माफी मांग रहे थे। मैंने कहा कोई बात नहीं। पानी पर सबका अधिकार है.. लेकिन जब मामला बोतल के पानी का हो तो पूछकर पी लेने पर अतिरिक्त पुण्य प्राप्त होता है। जिसे आप प्राप्त करने में चूक गये। वैसे आप पूछ लेते तब भी मैं अपने बोतल को आपके कंठ के लिए आजाद कर लेता।
और हां! एक और महत्वपूर्ण बात…
खुली हुयी बोतल को तसल्ली करके ही होठों से लगाना चाहिए। क्या पता… जिसे आप पीने योग्य समझ रहें हों और वो पीने की योग्यता खोकर धोने की योग्यता धारण कर चुकी हो।
अब बस यह न पूछियेगा कि क्या धोने की।
रिवेश प्रताप सिंह