Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 36
प्रातःकाल श्रीराम ने लक्ष्मण को जगाकर कहा, “भाई! मीठी बोली बोलने वाले जंगली पक्षियों का कलरव सुनो। अब हमारे प्रस्थान के योग्य समय आ गया है।”
फिर यमुना के शीतल जल में स्नान करके वे तीनों चित्रकूट के मार्ग पर आगे बढ़े। मार्ग में श्रीराम ने सीता से कहा, “विदेहराजनन्दिनी! इस वसंत ऋतु में खिले हुए इन पलाश के वृक्षों को तो देखो! इन पर इतने फूल खिले हैं, जिससे लगता है मानो इन वृक्षों ने अपने ही फूलों की माला पहन ली है। अपने लाल रंग के कारण ये प्रज्वलित प्रतीत होते हैं। ये भिलावे और बेल के पेड़ अपने फूलों व फलों के भार से झुक गए हैं। दूसरे मनुष्य इस गहन वन में नहीं आते हैं, इसलिए इन फलों-फूलों का उपयोग कोई नहीं कर रहा है। निश्चय ही हम इन फलों से जीवन-निर्वाह कर सकेंगे।”
फिर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! देखो तो यहाँ के एक-एक वृक्ष में मधुमक्खियों के कितने बड़े-बड़े छत्ते लटक रहे हैं। इनमें से प्रत्येक में एक-एक द्रोण (लगभग सोलह सेर) मधु होगा। वन का यह भाग बड़ा रमणीय है। यहाँ फूलों की वर्षा-सी हो रही है और सारी भूमि पुष्पों से ढँक गई है। उधर वह चातक बोल रहा है और इधर से मानो यह मोर उस पपीहे की बात का उत्तर दे रहा है।”
ऐसी बातें करते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए।
कुछ समय बाद श्रीराम ने कहा, “देखो! वह रहा चित्रकूट पर्वत। इसका शिखर बहुत ऊँचा है और हाथियों के अनेक झुण्ड उसी ओर जा रहे हैं। अनेक पक्षी भी चहक रहे हैं। चित्रकूट के कानन में समतल भूमि और बहुत-से वृक्ष हैं, अतः उसी में हम लोग भी बड़े आनन्द से रहेंगे।”
यथासमय वे लोग रमणीय चित्रकूट पर्वत पर जा पहुँचे। वहाँ अनेक पक्षी थे व फल-मूलों की भी बहुतायत थी। वहाँ पर्याप्त मात्रा में स्वादिष्ट जल भी उपलब्ध था।
वहाँ पहुँचकर श्रीराम ने कहा, “सौम्य! यह पर्वत बड़ा मनोहर है। अनेक वृक्ष व लताएँ इसकी शोभा बढ़ा रही हैं। यहाँ अनेक महात्मा भी निवास करते हैं। हम भी यहीं निवास करेंगे।”
ऐसा निश्चय करके उन सबने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में प्रवेश किया एवं उनके चरणों में मस्तक झुकाया। उनके आगमन से महर्षि वाल्मीकि अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने तीनों का आदर-सत्कार करके उन्हें बैठने का स्थान दिया।
तब श्रीराम ने महर्षि को अपना यथोचित परिचय देने के बाद लक्ष्मण से कहा, “भाई लक्ष्मण! तुम जंगल से अच्छी-अच्छी मजबूत लकड़ियाँ ले आओ और रहने के लिए एक कुटी तैयार करो। मेरा अब यहीं रहने को जी चाहता है।”
यह सुनकर लक्ष्मण अनेक प्रकार के वृक्षों की डालियाँ तोड़कर ले आए तथा उन्होंने एक पर्णशाला तैयार की। वह कुटी भीतर-बाहर दोनों ओर से लकड़ी की दीवार से सुस्थिर बनाई गई थी और ऊपर से भी उसे छा दिया गया था, ताकि वर्षा का जल भीतर न आ सके।
कुटी तैयार हो जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “सुमित्राकुमार! तुम शीघ्र ही कृष्णमृग को मारकर उसका गूदा ले आओ। उसी से हम पर्णशाला के अधिष्ठाता देवताओं का पूजन करेंगे क्योंकि दीर्घ जीवन की इच्छा करने वालों को वास्तुशान्ति अवश्य करवानी चाहिए। जल्दी करो क्योंकि इस समय सौम्य मुहूर्त और ध्रुव संज्ञक है, अतः इसी शुभ समय में यह कार्य हो जाना चाहिए।”
तब लक्ष्मण ने एक काले मृग का शिकार करके उसका माँस पकाया और श्रीराम से कहा, “मैंने इसके सभी अंगों को अच्छी तरह पका दिया है। अब कृपया आप वास्तुदेवताओं का यजन कीजिए क्योंकि आप इसमें कुशल हैं।”
(विभिन्न संस्करणों में मुझे इसके अलग अलग अनुवाद मिले। गीता प्रेस के अनुवाद में इसे गजकन्द कहा गया है, किंतु सभी श्लोकों को देखने पर वह अनुपयुक्त लगता है, अतः मैं मूल श्लोक भी यहां दे रहा हूं।)
“ऐणेयम् मांसम् आहृत्य शालाम् यक्ष्यामहे वयम्।
कर्त्व्यम् वास्तुशमनम् सौमित्रे चिरजीवभिः।। (2-56-22)
मृगम् हत्वाऽऽनय क्षिप्रम् लक्ष्मणेह शुभेक्षण।
कर्तव्यः शास्त्रदृष्टो हि विधिर्दर्ममनुस्मर।। (2-56-23)
स लक्ष्मणः कृष्ण मृगम् हत्वा मेध्यम् पतापवान्।
अथ चिक्षेप सौमित्रिः समिद्धे जात वेदसि।। (2-56-26)
तम् तु पक्वम् समाज्ञाय निष्टप्तम् चिन्न शोणितम्।
लक्ष्मणः पुरुष व्याघ्रम् अथ राघवम् अब्रवीत्।। (2-56-27)
अयम् कृष्णः समाप्त अन्गः शृतः कृष्ण मृगो यथा।
देवता देव सम्काश यजस्व कुशलो हि असि।। (2-56-28))”
तब श्रीराम ने नियमपूर्वक स्नानादि करने के बाद वास्तुयज्ञ के सभी मन्त्रों का संक्षेप में पाठ एवं जप किया। इस प्रकार समस्त देवताओं का पूजन करके पवित्र भाव से उन्होंने पर्णकुटी में प्रवेश किया। फिर उन्होंने बलिवैश्वदेव कर्म, रुद्रयाग तथा वैष्णवयाग करके वास्तुदोष की शान्ति के लिए मंगलपाठ किया। इसके उपरान्त नदी में विधिपूर्वक स्नान करके गायत्री मन्त्र आदि का जप करने के बाद श्रीराम ने पञ्चसूना आदि दोषों की शान्ति के लिए बलिकर्म संपन्न किया। उस छोटी-सी कुटी के अनुरूप ही श्रीराम ने वेदीस्थलों (बलि के स्थान), चैत्यों (गणेश आदि के स्थान) तथा आयतनों (विष्णु आदि देवों के स्थान) का निर्माण एवं स्थापना की। इसके बाद सीता, लक्ष्मण व श्रीराम तीनों ने एक साथ उसमें निवास के लिए प्रवेश किया।
वह मनोहर कुटी अत्यंत उपयुक्त स्थान पर बनी हुई थी। उसे वृक्षों के पत्तों से छाया गया था और तीव्र वायु से बचने का भी उसमें प्रबन्ध था। पास ही माल्यवती (मंदाकिनी) नदी बहती थी। उस मनोरम परिसर का सानिध्य पाकर श्रीराम को बड़ा हर्ष हुआ और वे वनवास के कष्टों को भूल गए।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस एवं वाल्मीकि रामायण के कुछ अंग्रेजी संस्करण)

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