Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 46
श्रीरामजी की चरण-पादुकाओं को अपने सिर पर रखकर भरत शत्रुघ्न के साथ रथ पर बैठे। महर्षि वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि आदि सब लोग आगे-आगे चले।
चित्रकूट पर्वत की परिक्रमा करते हुए मन्दाकिनी नदी को पार करके वे लोग पूर्व दिशा की ओर बढ़े और भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचे। श्रीराम के साथ हुई सारी बातचीत का वृतांत उन्हें सुनाने के बाद भरत ने उनसे आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। यमुना नदी को पार करने के बाद उन लोगों ने आगे गंगा को पार किया और वे श्रृंगवेरपुर में पहुँचे। वहाँ से आगे बढ़ते हुए उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया।
पिता और बड़े भाई के बिना भरत को अब अयोध्या सूनी लग रही थी। सारे नगर में अन्धकार छाया हुआ था। घरों के किवाड़ बंद थे। सड़कों पर बिलाव एवं उल्लू विचर रहे थे। शोक के कारण व्यापारियों का उत्साह भी समाप्त हो गया था। बहुत कम दुकानें खुली हुई थीं। पिछले कुछ दिनों से अयोध्या की सड़कें झाड़ी-बुहारी भी नहीं गई थीं, इसलिए वहाँ इधर-उधर कूड़े-करकट के ढेर भी दिखाई दे रहे थे।
अयोध्या की यह अवस्था देखकर भरत ने सारथी सुमन्त्र से कहा, “अब अयोध्या में पहले की भाँति गाने-बजाने का स्वर नहीं सुनाई पड़ता, यह कितने कष्ट की बात है! अब न चारों और वारुणी की मादक गन्ध कहीं फैल रही है और न वातावरण में फूल, चंदन या अगर की पवित्र सुगन्ध है। हाथी, घोड़ों व रथों का स्वर भी कहीं सुनाई नहीं दे रहा है।”
“श्रीरामचन्द्रजी के चले जाने से नगर के लोग दुःखी हो गए हैं। अब वे फूलों के सुन्दर हार पहनकर बाहर घूमने नहीं निकलते। अब अयोध्या में कोई उत्सव नहीं हो रहे हैं और न ही अब नगर के मार्गों पर मनोहर वेषधारी युवा दिखाई पड़ रहे हैं।”
सुमन्त्र से इस प्रकार की बातें करते हुए भरत ने दुःखी मन से महाराज दशरथ के राजमहल में प्रवेश किया, जहाँ से उनके पिता पहले ही उन्हें अकेला छोड़कर स्वर्गलोक को जा चुके थे।
अपनी माताओं को अयोध्या में रखकर भरत ने गुरुजनों से कहा, “मेरे पिताजी तो स्वर्ग सिधार गए और मेरे पूजनीय भ्राता श्रीराम वन में निवास कर रहे हैं। अतः मैं अब श्रीराम के लौटने की प्रतीक्षा करता हुआ नन्दीग्राम में ही रहूँगा। आप सब लोग मुझे इसकी आज्ञा दें।”
भरत की बात सुनकर वसिष्ठ जी ने इसकी सहमति दे दी।
तब भरत ने सारथी से अपना रथ लाने को कहा। फिर अपनी माताओं को प्रणाम करके शत्रुघ्न के साथ भरत रथ पर सवार हुए। वसिष्ठ आदि गुरुजन उनके आगे-आगे चल रहे थे। अयोध्या से पूर्व दिशा की ओर यात्रा करके उन्होंने नन्दीग्राम का मार्ग पकड़ा। हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई सारी सेना तथा सभी नगरवासी भी बिना बुलाये ही उनके पीछे-पीछे चल पड़े।
नन्दीग्राम पहुँचकर भरत ने अपने गुरुजनों और मंत्रियों से कहा, “यह राज्य मेरे भाई श्रीराम की धरोहर है। उनकी ये स्वर्णभूषित चरण-पादुकाएँ ही अब उनकी प्रतिनिधि हैं। अब आप लोग इन्हीं के ऊपर छत्र धारण करें। श्रीराम के लौटने तक मैं केवल उनकी धरोहर के रूप में इस राज्य को संभालूँगा व चौदह वर्षों बाद उनके लौटते ही यह राज्य पुनः उनके चरणों में समर्पित करके इस भार से मुक्त हो जाऊँगा।”
ऐसा कहकर भरत ने अपने राजसी वस्त्र हटा दिए और वल्कल एवं जटा धारण करके वे नन्दीग्राम में रहकर मुनियों जैसा जीवन जीने लगे।
उधर चित्रकूट से भरत के लौट जाने पर उस वन में निवास करते हुए श्रीराम ने देखा कि वहाँ रहने वाले अन्य तपस्वी अब उद्विग्न होकर वहाँ से कहीं और जाने का विचार कर रहे हैं। पहले जो लोग वहाँ आनन्द से रहते थे, अब वे उत्कंठित दिखाई पड़ रहे थे। भौहें टेढ़ी करके श्रीराम की ओर संकेत करते हुए किन्तु मन ही मन में शंकित होकर वे लोग आपस में बातचीत कर रहे थे।
उनकी ऐसी भाव-भंगिमा देखकर श्रीराम को संशय हुआ कि ‘कहीं मुझसे कोई अपराध तो नहीं हो गया है’। तब उन्होंने हाथ जोड़कर वहाँ के कुलपति महर्षि से पूछा, “भगवन्! यहाँ के सभी तपस्वी मुनि इस प्रकार उद्विग्न क्यों लग रहे हैं? क्या सीता, लक्ष्मण या मुझसे कोई भूल हुई है?”
तब उन वृद्ध महर्षि से काँपते हुए स्वर में कहा, “श्रीराम! ये सब तपस्वी इस बात से भयभीत हैं कि आपके कारण इस वन में राक्षसों की ओर से बड़ा संकट आने वाला है। यहाँ खर नामक एक भीषण राक्षस रहता है, जिसने जनस्थान में रहने वाले सभी तपस्वियों को उखाड़ फेंका है। वह रावण का छोटा भाई है और वह बड़ा ही ढीठ, अहंकारी, क्रूर तथा नरभक्षी भी है। जब से आप इस आश्रम में रह रहे हैं, तभी से वह तापसों को विशेष रूप से सताने लगा है।”
“श्रीराम! ये अनार्य राक्षस वीभत्स, क्रूर, घृणित और भयावह रूप धारण करके सामने आते हैं और तपस्वियों को अपवित्र पदार्थों का स्पर्श कराकर उन्हें प्रताड़ित करते हैं। वे चुपचाप जाकर आश्रमों में छिप जाते हैं और वहाँ रहने वाले तपस्वियों का विनाश करके स्वयं आनंद से वहाँ विचरने लगते हैं। यज्ञ आदि आरंभ होने पर वे समस्त सामग्री को इधर-उधर फेंक देते हैं, अग्नि में पानी डाल देते हैं और कलशों को फोड़ देते हैं।”
“उन दुरात्मा राक्षसों के प्रकोप से बचने के लिए ही ये सब तपस्वी इस आश्रम को त्यागना चाहते हैं और मुझे भी वे अपने साथ चलने को कह रहे हैं। यहाँ से थोड़ी दूर पर एक विचित्र वन है, जहाँ फल-मूल आदि की प्रचुरता है। वहीं अश्वमुनि का आश्रम भी है। अब इन सब ऋषियों के साथ मैं पुनः उसी आश्रम में जाकर निवास करूँगा।”
“श्रीराम! यद्यपि आप पराक्रमी हैं व इन राक्षसों का दमन करने में सक्षम हैं, किन्तु इस समय आपकी पत्नी साथ होने के कारण इस आश्रम में आपका रहना संदेहजनक एवं दुःखदायक है। अतः खर आकर आपके साथ कोई अनुचित व्यवहार करे, उससे अच्छा है कि आप भी हमारे साथ ही चलिए।”
श्रीराम ने उन्हें समझा-बुझाकर वहीं रोकने का बहुत प्रयास किया, किन्तु वे लोग नहीं रुके। श्रीराम से विदा लेकर वे सब लोग उस आश्रम को छोड़कर वहाँ से चले गए।
उन सबके जाने पर श्रीराम ने जब स्वयं भी कई बार विचार किया, तो कई कारणों से उन्हें भी अब वहाँ रहना उचित नहीं लगा। उन्होंने सोचा, ‘इसी आश्रम में मैं भरत से, माताओं से तथा अयोध्यावासियों से मिला था। उस प्रसंग की स्मृतियाँ मेरे मन में बराबर बनी हुई हैं और मैं प्रतिदिन उन लोगों का स्मरण करके शोकमग्न हो जाता हूँ। भरत के सेना के हाथी-घोड़ों की लीद से यहाँ की भूमि भी अपवित्र हो गई है। अतः हम लोगों को भी अब यहाँ से कहीं और चले जाना चाहिए।
ऐसा विचार करके श्रीराम, सीता और लक्ष्मण भी वहाँ से चल दिए और महर्षि अत्रि के आश्रम में पहुँचे।
वहाँ पहुँचकर उन्होंने वृद्ध मुनिश्रेष्ठ अत्रि व उनकी धर्मपरायणा वृद्धा पत्नी अनसूया माता को प्रणाम किया। तब महाभागा अनसूया ने सीता को सन्मार्ग का उपदेश दिया तथा पतिव्रता एवं अनार्या स्त्रियों के लक्षण बताए। सीता ने भी उन्हें प्रणाम करके उनके उपदेशों को विनम्रता से ग्रहण किया।
इससे प्रसन्न होकर माता अनसूया ने कहा, “सीते! तुम्हारी बातों से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। यह सुन्दर दिव्य हार, ये वस्त्र, आभूषण, अङ्गराग और बहुमूल्य अनुलेपन मैं तुम्हें उपहार में दे रही हूँ। तुम इन्हें स्वीकार करो।”
सीता ने आदरपूर्वक वे सब उपहार ग्रहण किए।
फिर देवी अनसूया ने सीता से कहा, “सीते! मैंने सुना है कि इन यशस्वी श्रीराम ने स्वयंवर में तुम्हें प्राप्त किया था। मैं उस वृतांत को विस्तार से सुनना चाहती हूँ।”
तब सीता ने उन्हें अपने बचपन से लेकर विवाह तक की सारी कथा बताई। यह सब बातें करते-करते पूरा दिन बीत गया।
अगले दिन प्रातःकाल जब सभी वनवासी तपस्वी मुनि स्नान करके अग्निहोत्र कर चुके, तब श्रीराम और लक्ष्मण ने वहाँ से जाने की आज्ञा माँगी। तब उन तपस्वियों ने दोनों भाइयों से कहा, “रघुवीर! इस विशाल वन में अनेक प्रकार के नरभक्षी राक्षस व हिसंक पशु निवास करते हैं। उन्हें जो भी तपस्वी या ब्रह्चारी यहाँ अपवित्र अथवा असावधान स्थिति में मिल जाता है, उसे वे राक्षस और हिंसक प्राणी वन में खा जाते हैं। अतः आप उन्हें रोकिये और मार भगाइये। इसी मार्ग से मुनिगण वन के भीतर फल-मूल लेने के लिए जाते हैं। आपको भी इसी मार्ग से इस दुर्गम वन में प्रवेश करना चाहिए।”
ऐसा कहकर उन्होंने श्रीराम, लक्ष्मण व सीता की मंगलयात्रा के लिए स्वस्तिवाचन किया और तब भगवान श्रीराम ने अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ उस विशाल दण्डकारण्य में प्रवेश किया।
वाल्मीकि रामायण का अयोध्याकाण्ड यहाँ समाप्त हुआ। अब अरण्यकाण्ड आरंभ होगा।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)

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