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अल्पसंख्यक दिवस पर पसमांदा मुस्लिमों के अधिकारों का सवाल

Faiyaz Ahmad Fyzie

by Faiyaz Ahmad
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संयुक्त राष्ट्र ने 18 दिसंबर 1992 के दिन धार्मिक, भाषाई और नस्लीय अल्पसंख्यकों से संबंधित निजी अधिकारों पर आधारित कथन की घोषणा की. ठीक इसी साल भारत सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आयोग का भी गठन किया गया. उसके बाद 2006 में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से अलग एक नए अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय अमल में आया.
इसी वजह से 2013 से हर साल 18 दिसंबर को अल्पसंख्यक अधिकार दिवस के रूप में मनाया जाने लगा.

इस दिन, धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई, नस्लीय अल्पसंख्यकों से संबंधित चुनौतियों और समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उनके अधिकारों के संरक्षण और सुरक्षा के महत्व पर प्रकाश डाला जाता है, वहीं नैतिक दायित्व के रूप में उनके विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने पर बल दिया जाता है.
भारत में पांच धार्मिक समुदायों को अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित किया गया है. इनमें मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जरथुस्ट्र या पारसी शामिल हैं. 2014 के बाद जैन को भी अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया गया है.

इसमें सबसे बड़ा धार्मिक समूह मुस्लिम है और व्यावहारिक रूप से हमारे देश में अल्पसंख्यक शब्द का तात्पर्य मुसलमानों से ही है. अन्य धर्मों के अनुयायियों की चर्चा या तो बिल्कुल नहीं होती या अगर बात होती भी है तो यदा कदा.

मुस्लिम समाज समरूप नहीं है

अब यह बात सामने आ चुकी है कि मुस्लिम समाज कोई एक समरूप समाज नहीं है और यहां बाहर से आए हुए शासक वर्गीय अशराफ मुसलमान और धर्मांतरित देशज पसमांदा मुसलमान का विभक्तिकरण है. जिनके बीच भाषा, वेशभूषा, सभ्यता एवं संस्कृति के आधार पर स्पष्ट विभेद साफ तौर से दिखाई देता है.

अशराफ समाज शासक वर्गीय होने के कारण प्रबल और प्रभावी समाज रहा है वहीं दूसरी ओर देशज पसमांदा समाज अब भी वंचित और अप्रभावी समाज बना हुआ है.

भारतीय संविधान में ‘अल्पसंख्यक ‘ शब्द की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं बताई गई है, फिर भी संविधान सभा में यह तय हुआ कि अल्पसंख्यक समुदायों, वंचित पिछड़ा वर्ग और देश के जनजातीय क्षेत्रों के लिए एक संरक्षण तंत्र को अपनाया जाएगा.

संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार वो समुदाय अल्पसंख्यक हैं जिन समुदाय के सदस्य संस्कृति, धर्म, भाषा या इनमें से किसी के संयोजन की सामान्य विशेषताओं को साझा करते हों और सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आधार पर अप्रभावी एवं संख्या में कम हों.

अगर संयुक्त राष्ट्र की उक्त परिभाषा की कसौटी पर मुस्लिम समाज को परखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि शासक वर्गीय अशराफ वर्ग और देशज पसमांदा मुसलमानों में पूर्ण तौर पर सांस्कृतिक साम्यता नहीं है. जहां एक ओर अशराफ वर्ग अपनी अरबी ईरानी संस्कृति का पालन करता है वहीं पसमांदा वर्ग भारत के क्षेत्रीय संस्कृति में रचा बसा है.

दूसरी तरफ, प्रभाविता की दृष्टि से देखा जाए तो शासक वर्गीय अशराफ प्रबल और प्रभावी समाज है जबकि पसमांदा वर्ग वंचित और अप्रभावी समाज. इस प्रकार भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समाज को एक इकाई मानकर देश में बसने वाले सारे मुसलमानों की समस्याओं को समझना और उनका निराकरण करना उचित नहीं जान पड़ता है.

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