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क्रिसमस पर पगलाते हिन्दू

by राजीव मिश्रा
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क्रिसमस पर पगलाते हिंदुओं को देखकर मुझे बस वैसा ही फील होता है, जैसा कि एक समय स्कूल से भाग कर मिथुन की फिल्म देखने जाते लड़कों को होता था. जब खुद नहीं जाते थे तब तो नहीं ही समझ आया, बाद में जब मिथुन की फिल्में देखीं तब भी समझ में नहीं आया.
कोई स्कूल से भागकर क्रिकेट का मैच खेलने जाता था, समझ सकते थे, कोई एससीएसए और यूथ क्लब (हमारे शहर के अच्छे वालीबॉल क्लब्स) का वॉलीबॉल मैच देखने जाता था, समझ सकते थे… पर मिथुन की फिल्म? सीरियसली??
इंग्लैंड आकर क्रिसमस का सेलिब्रेशन देखा तो बिल्कुल वही फील हुआ जैसे मिथुन की फिल्म देख ली हो.. यही है जिसके लिए लोग पागल हैं?
क्रिसमस का विरोध इसे हतोत्साहित करने का बिल्कुल सही तरीका नहीं है. इसे इग्नोर कीजिए, अंडरप्ले कीजिए… इसका मजाक बनाइए. इसे विरोध करके और कूल मत बनाइए… कोई क्रिसमस की टोपी पहन लिया तो वह कन्वर्ट ही नहीं हो गया, वह अपना ही आदमी है.
वहीं, कुछ करने का मोर्चा है तो वह स्कूल है. व्यक्ति अपना जीवन जैसे जीना चाहते हैं, जीने दें… इंस्टीट्यूशंस अधिक नुकसान करते हैं. उनपर फोकस करें. अगर दिसंबर में स्कूलों में क्रिसमस स्पेशल सेलिब्रेशन हो रहा है तो उसके संदर्भ में अपना विरोध दर्ज कराएं. दिसंबर में शादी ब्याह होते रहते हैं,
उनमें जाएं… बच्चों को लेकर छुट्टियों पर चले जाएं… स्कूलों को कहें कि हम अपने बच्चों को कल्चरल पॉल्यूशन से बचाने के लिए स्कूल नहीं भेज रहे… उनपर थोड़ा मनोवैज्ञानिक दबाव बनाएं… प्रिंसिपल की कुर्सी पर बैठा आदमी भी आदमी ही है. उसे भी प्रेशर लेना नहीं पसंद है. बच्चों को इसके आनंददायक सब्सटीट्यूट दें. पार्टी करें, मस्ती करें और बच्चों को कराएं…
पर क्रिसमस को किनारे कर के. मातम न मनाएं… साथ ही बच्चों को ऐसा न लगे कि आप घृणा और संकीर्णता से प्रेरित हैं. बस, क्रिसमस को हँसी मजाक में अंडरप्ले करें.
टैक्टफुल होने की जरूरत है… और अगर आप कल्चरल पॉल्यूशन से लड़ना चाहते हैं तो बच्चों को अपनी टीम में रखे बिना नहीं हो सकता.

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