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पिछले हजार वर्षों के निरंतर विदेशी आक्रमणों ने यों तो हिंदू समाज को कई स्तरों पर नुकसान पहुंचाया लेकिन सर्वाधिक नुकसान जिस स्तर पर पहुँचा, वह था ‘जातीय आत्मविश्वास’।
इस्लाम ने कहा, “तुम्हारा बहुदेववादी मार्ग झूठा है, एकेश्वरवाद ही सत्य है।”
भक्त कवि गिड़गिड़ाने लगे,”हम भी एकेश्वरवादी हैं, हमें भी सच्चा मान लो न।”
इस्लाम ने कहा,”तुम मूर्तिपूजक काफिर हो।”
आर्यसमाजी सहम गये,”ना जी, हम कभी मूर्तिपूजक नहीं थे, ये तो बामन लोगों ने शुरू करवाई।”
ईसाइयों ने कहा,”तुम बहुपत्नीत्व और बहुपतित्ववादी समाज हो।”
महर्षि दयानंद सरस्वती ने सफेद झूठ बोलना शुरू कर दिया,” हमारे यहाँ कोई बहुपत्नीक या बहुपतिधारी था ही नहीं।”
अर्थात हम इतने आत्महीन हो गए कि जिस बिंदु पर उंगली उठी उसी पर सफाई देने में जुट गए। कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया कि–
” तुम झूठे हो और तुम्हारी मान्यताएं झूठी। हमारी पूजा पद्धति, हमारे धार्मिक विचारों को समझने की बौद्धिक औकात तुम्हारी नहीं और हमारे पूर्वज जो भी थे जैसे भी थे, हमारे लिए आदरणीय रहेंगे। उनकी आलोचना समयानुसार हम करेंगे, तुम बर्बर उनके पैरों की धूल भी नहीं।”
लेकिन आत्महीनता का, आत्मविश्वासहीनता का जो रोग लगा वह इतनी आसानी से जाने वाला नहीं था और इसी का परिणाम था, ‘हिंदू व हिंदुत्व’ शब्दों के प्रति हीनताबोध।
यह हीनताबोध यह कहकर बिठाया गया कि ईरानी व अरब भाषा में हिंदू शब्द का अर्थ चोर, डाकू, व्यभिचारी होता है इसलिये इस शब्द का प्रयोग हमें नहीं करना चाहिए।
अब ये कैसा वाहीयाद तर्क हुआ?
फेसबुक पर ही मुस्लिमों के वीर्य से पैदा हुए कुछ हिंदू नामधारी जन्मनाजातिवादी व्यक्ति मेरे वंशनाम ‘सिकरवार’ को ‘शुक्रवार’, ‘शुकरवार’, ‘शूकरवार’ आदि विकृत रूप में लिखते हैं तो क्या मैं चिढ़कर अपने वंशनाम का त्याग कर दूँ?
क्या मैं अपने मूलस्थान ‘सीकरी’ को, अपने वीर पूर्वजों की पुण्यस्मृति जिसे मैं अपने वंशनाम के रूप में सगर्व धारण करता हूँ सिर्फ इसलिए छोड़ दूं क्योंकि कुछ म्लेच्छ वीर्य से पैदा हुए जन्मनाजातिवादी उसे विकृत रूप में प्रयोग कर समस्त सिकरवारों को अपमानित करते हैं।
तो फारस और अरब में प्रचलित एक सम्मानीय शब्द ‘हिंद’ और ‘हिंदू’, जिनके सम्मान में पैगम्बर मुहम्मद के हाशमी खानदान ने कविताएं लिखी थीं, को इसलिये छोड़ दें कि वहाँ बर्बर व अश्लील दिमाग इस्लामियों ने उस सम्मानीय शब्द को विकृत अर्थों में प्रयोग करना शुरू कर दिया?
जी हाँ, ‘हिंदू’ शब्द न केवल प्राचीनकाल से प्रचलित था बल्कि अरब, ईरान, चीन आदि में इस शब्द का बहुत सम्मान था, जिसके विषय में अगली कड़ी में लिखा जाएगा।
बहरहाल हिंदू शब्द का कोई भी प्रतिस्थापी नहीं है क्योंकि यह शब्द स्वयं में एक साथ हमारी ‘भोगौलिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व राष्ट्रीय’ पहचान है।
इसलिये,
“गर्व से कहो हम हिंदू हैं।”

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