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सत्ता_और_अर्थ

देवेन्द्र सिकरवार

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छठी शताब्दी ईपू, एक गौरवर्णीय सुंदर युवक अपने अश्व पर सवार था। उसके चेहरे पर एक विध्वंसक कठोरता छाई हुई थी।
अश्व भी अपने स्वामी की वर्तमान स्थिति के अनुरूप उद्विग्न होकर हिनहिना रहा था और एक पग से भूमि को खुरच रहा था।
सामने दुर्ग के द्वार के धीरे-धीरे खुलने लगे। नागरिकों का एक प्रतिनिधिमंडल आठ रथों पर युवक के सामने आया। उनमें सबसे आगे के रथ पर एक वृद्ध परंतु गरिमामय व्यक्तित्व उनका नेतृत्व कर रहा था।

“राजकुमार, अपने वचन के अनुसार गणसभा ने दुर्ग के द्वार खोल दिये हैं, अब आप अपने वचन का…..”
वृद्ध की बात पूरी होने से पूर्व ही युवक ने अपना खड्ग, कोष से बाहर निकाला और गर्जना की, “पूर्ण विध्वंस! एक भी स्त्री, पुरुष, बालक को जीवित मत छोड़ना। नगर को जला कर राख कर दो।”
वृद्ध हक्का-बक्का रह गया और अश्वारोही नगर में तूफान की तरह प्रवेश करने लगे।
कुछ ही पलों में नगर से करुण चीत्कारों की ध्वनियां और अट्टालिकाओं से अग्नि की लपटें उठने लगीं।
पूर्वी भारत में एक महान गणसंघ का विनाश होने लगा।
यह था इक्ष्वाकु वंशी शाक्यों का गणसंघ जिसमें सम्मिलित थे, कोलिय व मोरिय।
जी हां, जो गण व नगर नष्ट हो रहा था वह तथागत बुद्ध की जन्मभूमि का ही नगर था। और यह युवक था कोसल नरेश प्रसेनजित का पुत्र विदूदभ।
यह पूरा लोमहर्षक हत्याकांड केवल एक घिनौने विचार के कारण हुआ था और वह था जन्मनाजातिगतश्रेष्ठता।
पूरब के ब्राह्मण स्वयं को सर्वश्रेष्ठ जाति मानने लगे थे और क्षत्रिय उन्हें इतना हीन मानते थे कि कोसल नरेश प्रसेनजित सुबह-सुबह किसी ब्राह्मण के आगमन पर भेंट से पूर्व मुँह पर काला पर्दा डाल लेता था कि कहीं सुबह-सुबह किसी ब्राह्मण का मुँह न देखना पड़ जाए।
पर सेर को सवासेर होता ही है।
गणक्षत्रिय, ब्राह्मणों व राजतंत्रीय क्षत्रियों को को वर्णसंकर व स्वयं से जन्मना हीन मानते थे।
तो हुआ ये कि इन प्रसेनजित महाशय को शाक्यों की कन्या से विवाह करने का शौक चर्राया और एक गणकुमारी की मांग भेज डाली।
शाक्य भी कौन से कम थे। वे स्वयं को शुद्धतम इक्ष्वाकु रक्त के आर्य मानते थे और बाकी राजतंत्री क्षत्रियों व ब्राह्मणों को वर्णसंकर; तो उन्होंने अपनी एक दासी को समर्पित कर दिया।
पर ये भूल गए कि कृष्ण का कर्मसिद्धांत किसी का पीछा नहीं छोड़ता।
सबको अपने कर्मों का दंड मिला।
व्यक्तिगत रूप से प्रसेनजित को भी और सामूहिक रूप से शाक्यों को भी जिनका नामोनिशान मिट गया।
वर्तमान जातिगत कुंठाओं का दौर ऐसे ही चल रहा है जिसका परिणाम भी शुभ नहीं होगा।
कृष्ण का कर्म सिद्धांत फिर अपना काम करेगा, व्याक्तिगत रूप से भी और सामूहिक रूप से भी।
संभल जाओ!
अपने विनाश को आमंत्रित मत करो!
और ये बात किसी जाति विशेष को नहीं उन सभी लोगों से कह रहा हूँ जो अपनी जाति को हिंदुत्व से ऊपर मानते हैं।
‘भीम-मीम गठबंधन’ इसी जन्मनाजातिगतश्रेष्ठतावाद की ही ‘विदूदभ’ जैसी संतान है, जिसे अगर मौका मिल गया तो अपना क्रूरतम प्रतिशोध लेगी।
बाकी, इस हत्याकांड और विनाश के बाद उस वृद्ध गणपति के आत्मबलिदान के कारण कुछ व्यक्ति जरूर बच निकले जिनमें से एकपरिवार में पैदा हुआ एक असाधारण बालक जो जनमेजय के बाद संपूर्ण भारत का एकछत्र सम्राट बना।
इस गाथा को फिर कभी लेकिन ऊपर की कथा को वर्तमान के सबक के रूप में लीजिये।

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