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काशी विश्वनाथ के ज्ञानवापी | प्रारब्ध

Author - Isht Deo Sankrityaayan

by Isht Deo Sankrityaayan
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काशी विश्वनाथ स्थित ज्ञानवापी के बारे में विशुद्ध झूठ पट्टाभि सीतारमैया ने फैलाया था, अपनी किताब Feathers and Stones के माध्यम से। ये वही सीतारमैया हैं जो कांग्रेस अधिवेशन में हुए संगठन चुनाव में महात्मा गांधी के प्रबल समर्थन और बार बार अपील के बावजूद नेताजी सुभाष चंद बोस से हार गए थे और सीतारमैया की हार को गांधी जी ने अपनी व्यक्तिगत हार कही थी। गांधी जी सत्य और लोकतंत्र में कितना विश्वास करते थे, इसका आकलन आप इसी तथ्य से कर सकते हैं कि लगभग सर्वसम्मति से जीतने के बावजूद उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेताजी को काम करने नहीं दिया। कार्यसमिति में बैठे अपने गुर्गों के माध्यम से इस कदर तंग किया कि सुभाष चंद्र बोस को इस्तीफा दे देना पड़ा।
आइए यह पूरा प्रकरण पढ़ते हैं आज के नवभारत टाइम्स में। लिंक (कमेंट बॉक्स में) खोलने से पहले उसके कुछ प्रमुख अंश :
‘एक बार औरंगजेब बनारस के पास से गुजर रहे थे। सभी हिंदू दरबारी अपने परिवार के साथ गंगा स्नान और भोलेनाथ के दर्शन के लिए काशी आए। मंदिर में दर्शन कर जब लोगों का समूह लौटा तो पता चला कि कच्छ की रानी गायब हैं। अंदर-बाहर, पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में तलाश की गई लेकिन उनके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली। सघन तलाशी की गई तो वहां एक तहखाने का पता चला। मंदिर के नीचे की गुप्त जगह के बारे में लोगों को जानकारी हुई। आमतौर पर वह मंदिर देखने से दो मंजिला दिखाई देता था। तहखाने में जाने वाला रास्ता बंद मिला, तो उसे तोड़ दिया गया। वहां बिना आभूषण के रानी दिखाई दीं। पता चला कि यहां महंत अमीर और आभूषण पहने श्रद्धालुओं को मंदिर दिखाने के नाम तहखाने में लेकर आते और उनसे आभूषण लूट लेते थे। इसके बाद उनके जीवन का क्या होता था, पता नहीं। हालांकि इस मामले में सघन तलाशी अभियान फौरन चलाया गया और रानी को ढूंढ लिया गया।
औरंगजेब को जब पुजारियों की यह काली करतूत पता चली तो वह बहुत गुस्सा हुआ। उसने घोषणा की कि जहां इस प्रकार की डकैती हो, वह ईश्वर का घर नहीं हो सकता। और मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया। लेकिन जिस रानी को बचाया गया उन्होंने मलबे पर मस्जिद बनाने की बात कही और उन्हें खुश करने के लिए एक मस्जिद बना दी गई। इस तरह काशी विश्वनाथ मंदिर के बगल में मस्जिद अस्तित्व में आया…. बनारस मस्जिद की यह कहानी लखनऊ में एक नामचीन मौलाना के पास दुर्लभ पांडुलिपि में दर्ज थी।’
मौलाना ने इसके बारे में सीतारमैय्या के किसी दोस्त को बताया था और कहा था कि जरूरत पड़ने पर पांडुलिपि दिखा देंगे। बाद में मौलाना मर गए और सीतारमैय्या का भी निधन हो गया। लेकिन वह कभी अपने उस दोस्त और लखनऊ के मौलाना का नाम नहीं बता पाए।
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गौर करें कि मौलाना ने यह झूठ सीतारमैया भी नहीं, सीतारमैया के ‘किसी दोस्त’ को ‘कभी’ बताया था। सच यह है कि महान सत्यवादी गांधी जी के परम शिष्य सीतारमैया ने न तो उस मौलाना का नाम कभी खोला और न ही अपने दोस्त का। पांडुलिपि का नाम खोलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
पांडुलिपि न तो सीतारमैया और न कोई और कभी दिखा पाया। यानी इस बेहूदे दुष्प्रचार, जो कि शुद्ध अफवाह है, का कोई आधार नहीं है।
अगर ऐसी ही बात किसी मस्जिद के बारे में कोई महंत या शंकराचार्य भी कहता तो सीतारमैया इतनी ही आसानी से मान जाते? ज्यादातर इत्तिहास की किताबें जो भारत में अब तक पढ़ाई जा रही थीं, ऐसे ही लिखी गई थीं। चूँकि ज्ञानवापी पर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की बात किसी भी तरह झुठलाई ही नहीं जा सकती थी, लिहाजा यह झूठ गढ़ा गया। झूठ गढ़ने और अफवाहें फैलाने में गोएबल्स के चेलों यानी लीगियो और वामपंथियों का कोई जोड़ न कभी रहा है और न होगा।

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