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समाजवाद में या तो सरकारी नौकरी होती है या ग़रीबी

लेखक - आर ए एम देव

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समाजवाद में या तो सरकारी नौकरी होती है या ग़रीबी, बेरोज़गारी, भूखमरी व अपमान।
दो विकल्प में इतना अंतर होगा तो लोग किडनी बेचकर या माता पिता की हत्या कर भी सरकारी नौकरी लेंगे। (अतिशयोक्ति नहीं है, कई उदाहरण है जहां अवकाशप्राप्ति से कुछ समय पहले सरकारी नौकरी वाले पिता/माता की रहस्यमयी मृत्यु हुई व बच्चे को परिणामत नौकरी मिली।)
इसी का एक दुष्परिणाम हुआ कि सरकारी नौकरी वाले दूल्हों के दहेज रेट आसमान पर पहुँच गए। इसका परिणाम ये हुआ कि एक idea मिल गया लोगों को कि दहेज धनी होने का एक legitimate उपाय है।
इसी का एक परिणाम हुआ कि बेटी के लिए सरकारी दूल्हे लायक़ दहेज न जुटा पाने वाले माता पिता असफल, inadequate मानने लगे स्वयं को व एकमात्र हल लोगों की समझ में आया: फ़ीमेल इन्फ़ैंटिसायड व no or single kid.
तो सबसे पहले para पर जायें: सरकारी नौकरी कम होनी चाहिए, याने जो भी निजी क्षेत्र में सम्भव है निजी होना चाहिए, व सरकारी कर्मचारी को आर्थिक क्षेत्र में interfere करने की कोई शक्ति नहीं होनी चाहिए ताकि भ्रष्टाचार न हो, व औसत वेतन निजी क्षेत्र से थोड़े कम होने चाहिए व tenure lifelong नहीं होने चाहिए।
वरना तो हमारे बच्चे ऐसे ही बदहवास, desperate, psychotic हो एक भर्ती परीक्षा से दूसरी भर्ती परीक्षा तक दौड़ते रहेंगे, व हम उन्हें व स्वयं को कोसते रहेंगे।
सोचिए, समाजवाद हमें नष्ट कर रहा है।

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