बहुत संशय था, द कश्मीर फ़ाइल्ज़ सेंसर बोर्ड द्वारा प्रमाणित अडल्ट मूवी है, बेटी को दिखाएँ या नहीं. बेटी ने बताया, मूवी का क्रेज़ ऐसा है कि उसके सभी मित्रों ने एनीवे प्लान कर रखा है ग्रूप में इस फ़िल्म को देखने जाने का. मैं इस फ़िल्म को अपने बच्चों के साथ इक्स्प्लेन करते हुवे देखना चाहता था.
पहली बार फ़िल्म अकेले देख कर आया. हिंसक दृश्य मुझे मालूम है आज की पीढ़ी वेब सीरीज़ वाली है तो ऐसी अबोध नहीं है. पर यह ज़रूरी था कि पर्दे पर जो दिख रहा है उसका इतिहास और भूगोल अच्छे से मालूम रहे.
अंततः कल मैं फ़िल्म दुबारा देखने पहुँचा सपरिवार. पहली बार शनिवार को गया था तब यह एक फ़िल्म थी, सोमवार को सूनामी थी. लगभग सारे स्क्रीन पर यही फ़िल्म चल रही थी. शनिवार को जहां फ़िल्म के बैनर तक नहीं लगे थे सोमवार को चारों ओर काशमीर फ़ाइल्ज़ ही दिख रही थी. और सिनेप्लेक्स में इतनी इतनी भीड़ कि यादासत में कभी इतनी भीड़ न दिखी थी. दोपहर में टिकट अड्वैन्स बुक करवाया तो भी शाम के शो की आगे से दूसरी रो में सीट मिली. थिएटर में हुजूम थे लोगों के. दस बीस पचास के ग्रूप में लोग आ रहे हैं.
इसके पश्चात एक आउट्डॉर डाइनिंग एरिया में खाना खाने गया. अग़ल बग़ल टेबल में लोग इसी फ़िल्म की चर्चा करते मिले.
इस फ़िल्म ने indian फ़िल्म मेकिंग का इतिहास बदल दिया है. दावूद एंड कम्पनी की फ़िल्म इंडस्ट्री के अंदर बनाई बाबरी मस्जिद ढह गई है. जनता जब जाग्रत होती है तो ऐसा ही होता है.
आप सभी लोग यदि आपके बच्चे इतने मेच्योर हैं कि हिंसा से उद्वेलित न हों और आप उन्हें फ़िल्म समझा सकें तो सपरिवार देखने जाइए. जितनी बार जाएँगे उतनी बार यह फ़िल्म आपको झकझोर देगी.