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विक्रम_संवत

संवत! कालगणना का एक प्रभावी उपाय।
इससे पूर्व भारत में कालगणना राजा के सिंहासनारूढ़ होने के वर्ष को आधार मानकर की जाती थी और उस राजा की मृत्यु के बाद नए राजा के सिंहासनारूढ़ होने पर पुनः एक से शुरू होती थी।
भारत में कैलेंडर या संवत के प्रचलन को लाये सूर्यपूजक शक लेकिन तलवार के दम पर थोपे गये दंभ भरे कैलेंडर को हमारे स्वाभिमानी पूर्वज कैसे स्वीकार करते?
उनकी हेकड़ी के विरुद्ध मालव गणक्षत्रियों में एक युवक खड़ा हुआ और शकों को धकेल दिया पश्चिमोत्तर की ओर ।
यह युवक इतिहास के पृष्ठों से लेकर जनमानस के ह्रदयों में ‘विक्रमादित्य’ के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।
विजयी मालवों ने उल्लास में शुरू किया अपना स्वयं क़ा कैलेंडर जो कहलाया या ‘कृत संवत’ या ‘मालव संवत’ लेकिन भारत की अवतारवादी जनता ने मालव राष्ट्रपति विक्रमादित्य के नाम पर इसे अपनी जातीय स्मृति में सहेज लिया विक्रम संवत के रूप में ।
कई ज्योतिषी बंधु और हिंदुत्व श्रेष्ठतावादी बंधु पढकर असहज भी हो सकते हैं और क्रुद्ध भी लेकिन ऐतिहासिक सत्य यही है कि विक्रम संवत ही हमारा पहला कैलेंडर है। इससे पूर्व न तो सम्राट भरत ने, न सगर, रघु, श्रीराम, युधिष्ठिर यहाँ तक कि सम्राट अशोक ने कोई कैलेंडर चलाया।
सृष्टि संवत से लेकर युधिष्ठिर संवत तक के जो भी संवत वर्णित हैं वह ‘गुप्तकाल’ में गणित व एस्ट्रोनॉमी के विद्वानों द्वारा रचे गए।
पर इसके मूल में भारतीयों की अज्ञानता नहीं बल्कि ‘समय’ के प्रति भारतीयों का भाव था कि अनंत समयचक्र में किसी मृत्य राजा या घटना को स्मरण रखने का क्या औचित्य जबकि एक दिन सभी कुछ खत्म होकर पुनः ऐसे ही शुरू होगा और ऐसे ही चलता रहेगा ये समयचक्र।
अर्जुन कृष्ण के विश्वरूप में क्या देखकर भयाकुल हो गए थे? समय की अनंतता को देखकर ही ना और कृष्ण की वह विकराल घोषणा,
”मैं काल हूँ।”
जीवन के इस संपूर्ण सत्य को भला यूनानी जैसे शुष्क बुद्धिवादी दार्शनिक और शक जैसे अर्द्धबर्बर कैसे समझते?
इसीलिये उन्हें मोह था केवल एक ही बात का-
“क्या हमारी मौत के बाद हमें याद रखा जायेगा?”
सुनकर कोई हिंदू हँस पड़ा होगा कि कितने जन्मों को याद रख सकोगे?
तो इसलिये उन्होंने चलाये कैलेंडर और हमारे शासक लिखवाते थे मात्र अपने शासनकाल के वर्ष।
फिर जब कैलेंडर शान का, शक्ति का, सामर्थ्य का प्रतीक बन गया तो भारत में राजाओं के बीच भी चली होड़ कैलेंडर चलाने की।
‘शक-शालिवाहन संवत’, ‘गुप्त संवत’, ‘हर्ष संवत’, ‘कल्चुरि संवत,’ आदि आदि लेकिन जो प्रतिष्ठा विक्रम संवत को मिली और उसके बाद कुछ हद तक शक संवत को मिली, वैसी फिर किसी को नहीं मिली, महान गुप्तों के चलाये ‘गुप्त संवत’ को भी नहीं। और आखिरकार ये संवत इतिहास में गुम हो भी गये।
बहरहाल जब राष्ट्रीय कैलेंडर को चुनने की बारी आई तो विक्रम संवत पर सभी एकमत थे लेकिन ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ जैसी सी ग्रेड पुस्तक लिखने वाले नेहरू बहादुर को हिंदुत्व के पुनुरुत्थान के किसी भी प्रतीक से घृणा थी इसलिये उन्होंने दवाब डाला विक्रम संवत के स्थान पर ‘शक संवत’ को राष्ट्रीय कैलेंडर घोषित करने को क्योंकि हुजूर के अनुसार कनिष्क ही इसका प्रचलनकर्ता था और वे कुषाणों के माध्यम से मुगलों को और कनिष्क के रूप में अकबर को स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे।
नेहरू बहादुर तो खैर एक औसत बुद्धिजीवी थे जिन्हें कन्नौज पर चीनी-तिब्बती रेडिंग की जानकारी तक नहीं थी लेकिन हमारे महान इतिहासकार?
संवत और विशेषतः शक संवत के संदर्भ में इतिहासकारों की बहसों को देखकर मुझे समझ आ गया था कि इन तथाकथित पीएचडी होल्डर इतिहासकारों में इतिहासबोध का सर्वथा अभाव रहा है।
इन इतिहासकारों से आमने सामने बैठकर पूछने का मन होता है कि कनिष्क या शालिवाहन अपने कैलेंडर को अपने शत्रु ‘शकों’ के नाम से क्यों चलाएंगे भला?
सामान्य बुद्धि की बात है कि अगर कनिष्क चलाता तो वह नाम रखता ‘कनिष्क संवत ‘ या ‘कुषाण संवत’ और अगर शालिवाहन ने ही चलाया तो उन्होंने इसमें ‘शालिवाहन’ के साथ ‘शक’ शब्द क्यों जोड़ा?
द्वितीय हमारे महान इतिहासकारों को कभी ये जानकारी रही ही नहीं कि संवत को चलाने के लिये विशाल धनराशि की जरूरत होती है क्योंकि राज्य में सारे निजी ऋण खजाने से चुकाने पड़ते हैं ताकि पुराने कैलेंडर की तिथियां खत्म हो जाएं।
तीसरा, इन इतिहासकारों ने कभी ध्यान से देखा ही नहीं कि शक संवत कहाँ-कहाँ प्रचलन में है और विक्रम संवत कहाँ और ऐसा क्योंकर हुआ?
इसका जवाब इनके पास नहीं मिलेगा क्योंकि उन्होंने इस दिशा में सोचा ही नहीं।
वस्तुतः शालिवाहन-शक कैलेंडर भारत में शकों के भारतीयकरण, हिंदूकरण का प्रतीक है जब शालिवाहन राजाओं अर्थात सातवाहन राजाओं से वैवाहिक संबंधों से शकों ने भारत में अपनी स्वीकार्य होने पर गौरव का अनुभव किया और इस ‘संयुक्त नाम’ ‘शक-शालिवाहन संवत’ नाम से 78 ई. में इस संवत का प्रचलन महाराष्ट्र व सौराष्ट्र के शकों ने किया।
जहाँ तक विक्रम संवत का प्रश्न है वह मालवों के रूप में हमारी लोकतांत्रिक गणक्षत्रिय परंपरा की विजय का, राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक है अतः भारत का राष्ट्रीय पंचांग ‘विक्रम संवत’ ही होना चाहिये।
शकारि विक्रमादित्य की शकों पर विजय के 2079वें विजयदिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं।
विक्रम संवत 2079 आपके जीवन में सुख शांति व समृद्धि लाये।

 

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