Home विषयलेखकों की चुटकी हे गन्धी! मतिअन्ध तू! अतर दिखावत काहि?
हे गन्धी! मतिअन्ध तू!
अतर दिखावत काहि?
हम किसी को भी बे-जगह और बे-वजह नहीं पेलते। तो आप भी उस पूर्वाग्रह एवं हठधर्मिता के मानसिक विचलन से बाहर आइये अन्यथा इलेक्ट्रिक शॉक लेना पड़ सकता है आपको।
वो गाँधी, जिसका नाम भी लोगों की समझ में आज तक नहीं आया, वो कई मुद्दों पर इतना गलत था कि मुझे यदि उसे दण्ड देने का अवसर मिलता
तो मैं उसे तीन ठांय से नहीं मारता। मैं उसे वैसे मारता जैसे अकबर ने अपनी धाय माता माहिम अङ्का के बेटे को मारा था। अकबर ने किले के बुर्ज से
अपने दूध-भाई को इतनी बार बटोर – बटोर कर फिंकवाया था, कि कब्रिस्तान तक जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के दूध-भाई की लाश नहीं, जमीन से खुरच कर उठाया हुआ उसके दूध-भाई का कीमा पहुँचा था। लेकिन, पर्सनल खुन्नस और बात है। एक तो मो. दा. क. गाँधी के नाम में गाँधी कोई शब्द ही नहीं।
गाँधी शब्द वास्तव में मूलतः गन्धी है। हिन्दी का गन्धी! और उर्दू का इत्रफरोश! दोनों सेम हैं। सेम टु सेम। अब बनले साहु! बिगड़ले बनिया!
कभी पेटियों में अतर की शीशियाँ भर कर मेले-ठेले में इतर बेचने वालों का खानदान जिनकी टाइटिल गन्धी थी, तक़दीर से माल ओ जर का मुसाहिब बन गया।
इतना! कि बैरिस्टरी पढ़ने को अपनी औलाद को विदेश भेज सके! उस जमाने में! जब दो आने मन चावल बिकता था और उसी जमाने में जब, मेरे देश के आम लोगों के पास दोनों वक्त चूल्हा जल सके, इतनी भी सहूलियत नहीं थी। उस जमाने में, उस खानदान को गन्धी, मतलब इत्रफरोश कहलाने में शर्म आने लगी। और Gandhi जिसका अविकल उच्चारण गन्धी है। Gan dhi – गाँ धी हो गया। लेकिन इतर फरोश होता तो बाणिया ही है न? गिरिधर ने!
कविराय गिरिधर ने! अपने एक कुण्डलिनी छन्द में, जिसे मूरख जन कुण्डलिया कहा करते हैं लिखा –
बनिया अपने बाप को
ठगत न लावे बार।
निसि बासर जननी ठगे,
जहाँ लियो अवतार।।
अब गरियाना हो तो कविराय गिरधर या वास्तविक नाम गिरिधर को गरियाना। लेकिन सच यही है कि बाणिया केवल अपना मुनाफ़ा देखता है। जिससे डील हो रही हो वह भले उसका बाप या माई ही क्यों न हो, बाणिया केवल अपना मुनाफ़ा देखता है। और उस गन्धी के इस बाणिया-वृत्ति ने, न इंग्रेज़ों को बख्शा न मुँह सिल मैनों को, और न हीन दुओं को। लेकिन ये याद रखना। कि उसने चाहे जितनी डाँड़ी मारी हो, लेकिन यदि उसने उस सौदे में अपनी मक्कारी न घोली होती, तो मैं और आप आज तक ब्लडी बास्टर्ड ब्लैक्स ही होते और हर पब्लिक प्लेस पर आज भी ये बोर्ड चस्पा होता –
डॉग्स, ऐंड इंडियन्स आर नॉट अलाउड!
यदि वह न होता! तो आज आप और हम! अपने घर में बैठे, उसे गरिया पाने की स्थिति में नहीं होते! तो! मजाक को इतना भी नहीं घसीटा जाता कि मजाक की चड्ढी ही रगड़ से फट जाये। रात गयी! बात गयी! एक गया चाहे जैसे गया! लेकिन एक और बाणिया सबके सर पर सवार है। गन्धी को अब भूल भी जाओ य्यार! उसको तुम बापू कहते हो? उस बापू का भी एक बापू जो तुमको हँसा – हँसा कर तुम्हारी नसों से तुम्हारा प्लेटलेट निकाले जा रहा, अब उसकी सोचो।
ज्यादा नहीं! बस चौबीस के बाद हर चौराहे पर एक बोर्ड होगा –
मध्यमवर्गीय आय श्रेणी के व्यक्तियों का सड़क पर दिखना मना है। यह देश या तो लक्खुओं का है, या भिक्खुओं का। लक्खू हमें चन्दा देंगे जिससे हम चुनाव लड़ेंगे, और भिक्खू तुम मध्यवर्गीयों के चुकाये कर से माल ए मुफ्त दिल ए बे रहम बने, और मुफ्त का वसूल कर हमारे महबूब बने, मतलब महबूबा मुफ्ती बने। हमें वोट देते रहेंगे।
और मैं!
मैं मतिअन्ध हूँ। अन्धों के शहर में आईना बेचता हूँ।
तो अपनी लँगोट इतनी ढीली न बाँधा करो, कि तुम्हरा फुदकता चूहा, रैट किलर ट्रैप में फँस कर मर जाये।

Related Articles

Leave a Comment