यास्क के निरुक्त में ‘ स्त्यै ‘ धातु से स्त्री शब्द की व्युत्पत्ति को बताया गया है । स्त्यै से तात्पर्य है जो लज़्ज़ा से सिकुड़ जाए।
स्त्री जब प्रेम में होती है तो अपने प्रियतम के समक्ष प्रेम जनित लज़्ज़ा से अपने नयनों की पंखुड़ियों को झुका लेती है जिससे उसके माथे की बिंदी अपने प्रियतम को अपनी समस्त शक्ति के साथ समर्पण का संदेश देती है।
लज़्ज़ा और संकोच से स्त्री ने जाने कितने भावों को ,अधिकारों को अपने हृदय के अंदर सिकोड़ कर उसे अपने नयनों में चित्रित कर लेती है ,इन नयनों में उभर रहे आकांक्षाओं और असीम प्रेम की तरंगों से रेखांकित चित्र को केवल शिव दृष्टि का पुरूष ही देख सकता है क्योंकि शिव जानते हैं कि शक्ति का मेरे प्रति यह समर्पण मुझे शक्तिशाली बनाता है अन्यथा शिव है ही क्या..!!!
शिव में “इ” कार ही शक्ति को प्रदर्शित करता है अतः यदि “इ” कार को निकाल दिया जाय तो वह शव हो जाता है। ब्रम्हज्ञानियों का मानना है कि बिना शक्तिदेवी की सहायता के शिव से साक्षात्कार संभव नहीं है।
शक्ति असीम है तभी तो वह शिव की अर्धांगिनी हैं , तभी तो वह श्रीनिवास के वक्षस्थल पर निवास करके उन्हें शक्तिशाली बनाती हैं।
प्रातः स्मरणीय हिंदी साहित्य में अभूतपूर्ण योगदान देने वाली महादेवी वर्मा स्त्री विमर्श के विषयों पर कहती हैं कि ” भारत की स्त्री तो माँ की प्रतीक है यदि वह मुक्त नहीं होगी तो मुक्तिबोध वाली संतान को कैसे जन्म देगी..!
स्त्री मात्र पुरुष की छाया नहीं है बल्कि संगिनी है क्योंकि छाया का कार्य अपने आधार से अपने आपको इस प्रकार मिला देना है जिसमें वह उसी के समान जान पड़े जबकि संगिनी का अपने सहयोगी की प्रत्येक त्रुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक से अधिक पूर्ण कर देना है।
पुरातन काल में स्त्री को विभिन्न नामों से पुकार कर वंदना की गई:
स्त्री जब अपनी वाणी और अपने कर्म से संतान को सुसंस्कृत करती है तब उसे ” अड़ंगानाम वर्धनादम्बा ” कहकर “अंबा ” नाम से संबोधित किया गया।
स्त्री जब पाणिग्रहण के बाद अपने पति को पतन से रोकती है तब उसे ” पत्नात् त्रायते ” अर्थात पत्नी कहकर पुकारा गया।
यूरोप में जब फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत हो रही थी तब कलाकार ” स्वतंत्रता ” को महिला का रूप प्रदान करते थे जिसके एक हाथ में ज्ञानोदय की मशाल होती थी और दूसरे हाथ में मनुष्य के अधिकारों का घोषणा पत्र होता था। 1848 में फ्रेडरिक सॉरयू ने जब जनतांत्रिक सामाजिक गणतंत्र को दर्शाने के लिए चार चित्रों की जो श्रृंखला बनाई थी उसमें “स्त्री की स्वतंत्रता रूपी मूर्ति ” को विशेष रूप से दर्शाया था।
जाहिर सी बात है माता को संतान का प्रथम गुरु माना जाता है यदि वह प्रवीणा है तभी वह संतान को प्रवीण बनाने में सक्षम होगी।

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