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जजों की नियुक्ति कौन करे…न्यायपालिका या कार्यपालिका? -2

by Praarabdh Desk
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मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीज़र
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द करते हुए सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों में पारदर्शिता के लिये मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीज़र बनाने को तैयार हो गया था।

  • MoP तैयार करने का आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने 16 दिसंबर,  2015 को दिया था।
  • उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्तियों के संबंध में पिछले दो वर्षों से सर्वोच्च न्यायालय और सरकार MoP को अंतिम रूप देने का प्रयास कर रहे हैं।
  • तब से अब तक MoP का मसौदा राष्ट्रीय सुरक्षा और सचिवालय जैसे कुछ मुद्दों को लेकर कॉलेजियम और केंद्र सरकार के बीच अटका हुआ है।
  • सरकार चाहती है कि उसे देश की सुरक्षा के नाम पर कॉलेजियम की किसी भी सिफारिश को खारिज करने का अधिकार हो…सर्वोच्च न्यायालय और हाईकोर्ट में नियुक्ति सचिवालय हो… नियुक्ति की सिफारिश करने से पहले उसे स्क्रीनिंग कमेटी को दिखाया जाए।
  • उल्लेखनीय है कॉलेजियम व्यवस्था में यह निहित है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और जनहित के नाम पर सरकार किसी जज की नियुक्ति की सिफारिश को वापस भेजेगी तो कॉलेजियम का फैसला अंतिम होगा।
  • सर्वोच्च न्यायालय यह कह चुका है कि सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकार्ड एसोसिएशन व अन्य बनाम भारत सरकार मामले के फैसले के बाद MoP न होने के कारण उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति को चुनौती देना आधारहीन है।
  • सर्वोच्च न्यायालय चाहता है कि जनहित में MoP तैयार होने में और विलंब न हो। शीर्ष अदालत ने इसके लिये कोई समय सीमा नहीं तय की है, लेकिन चाहता है कि MoP को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रखा जाए।
  • विदित हो कि एक मामले में MoP के बिना उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी, जहाँ याचिका खारिज़ होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गई थी।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका में दिये गए इस तर्क से सहमति जताई थी कि MoP को एक मैकेनिज्म देना चाहिये ताकि उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में देरी न हो।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि पद रिक्त होने से पहले ही कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिये ताकि इन रिक्तियों को समय पर भरा जा सके।
  • विदित हो कि सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकार्ड एसोसिएशन व अन्य बनाम भारत सरकार, 1993 के फैसले के मुताबिक बने MoP के पैरा 5 के तहत उच्च न्यायालय में कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश  का कार्यकाल एक महीने से ज्यादा नहीं होना चाहिये।
  • फिलहाल जो MoP है, वह 1993 के बाद केंद्र सरकार के न्याय विभाग द्वारा बनाया गया था और सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने इसका अनुमोदन किया था।
  • इसमें जजों की नियुक्ति प्रक्रिया का उल्लेख है, जिसमें संलग्न डॉक्यूमेंट के साथ उम्मीदवारों की व्यक्तिगत जानकारी और एफिडेविट भरे जाते हैं। अब जो MoP बनाया जा रहा है उसमें जजों की पात्रता शर्तों के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रावधान जोड़ने तथा सर्वोच्च न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में
  • एक सचिवालय बनाने पर भी सहमति बन गई है।
  • यह सचिवालय शीर्ष न्यायालय के जजों तथा प्रत्येक उच्च न्यायालय में जजों के डेटाबेस को रखने और जजों की नियुक्ति में कॉलेजियम की मदद करेगा।

121वाँ संविधान संशोधन (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग) 
गौरतलब है कि वर्ष 2014 में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों और स्थानान्तरण के लिये 121वाँ संविधान संशोधन कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम बनाया था।

  • वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया था कि ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ अपने वर्तमान स्वरूप में न्यायपालिका के कामकाज में सीधा हस्तक्षेप है।
  • उल्लेखनीय है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाले इस आयोग की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश को करनी थी। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, केन्द्रीय विधि मंत्री और दो जानी-मानी हस्तियाँ भी इस आयोग का हिस्सा थीं।
  • आयोग में जानी-मानी दो हस्तियों का चयन तीन सदस्यीय समिति को करना था, जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में नेता विपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता शामिल थे।आयोग के संबंध में एक दिलचस्प बात यह थी कि अगर आयोग के दो सदस्य किसी नियुक्ति पर सहमत नहीं हुए
  • तो आयोग उस व्यक्ति की नियुक्ति की सिफ़ारिश नहीं करेगा।

निष्कर्ष: कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच मतभेदों का सार्वजनिक होना लोकतंत्र के लिये नुकसानदायक है। संसदीय लोकतंत्र में कार्यपालिका और न्यायपालिका के अपने-अपने अधिकार हैं। संविधान के तहत दोनों की सुपरिभाषित भूमिकाएँ हैं और अदालतों की भूमिका अंततः विधि का शासन सुनिश्चित कराने की है। न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों अपना-अपना काम करती हैं। विधायिका कानून बनाती है और इसे लागू करना कार्यपालिका का और विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के संविधान सम्मत होने की जाँच करना न्यायपालिका का काम है।

न्यायपालिका देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थानों में से एक है और लोगों के मन में इसकी स्वतंत्रता तथा निष्पक्ष न्याय के प्रति इसकी प्रतिबद्धता पर अटूट विश्वास है। हाल ही में जजों की नियुक्ति को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच व्यवधान सामने आया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि शक्ति पृथक्करण जैसा बुनियादी सिद्धांत विवाद का विषय बना हुआ है, जबकि इस गंभीर मुद्दे पर सार्वजनिक बहस से बचा जाना चाहिये। कार्यपालिका व न्यायपालिका के बीच यह टकराव लोकतंत्र के हित में नहीं है, क्योंकि इससे पहले से ही उलझी परिस्थितियों के और उलझने का अंदेशा रहता है।

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