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न्याय निरपेक्ष होता है

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यूँ तो पूर्वानुमान सत्य होने पर प्रसन्नता होनी चाहिए, परन्तु कई बार यह उपलब्धि हर्ष नहीं,गहरा आघात देती है,क्योंकि मन के एक कोने में आकांक्षा होती है कि आपका अनुमान सही न निकले।

न्यायघरों ने अपने न्यायों से सत्यनिष्ठ न्यायकांक्षी आमजन के मन में इस भ्रम के स्थायी होने का अवसर नहीं दिया है कि न्याय निरपेक्ष होता है,,फिर भी इस देश के न्यायघरोँ पर आस्था रखने वालों के विश्वास को धूल नहीं होने दिया है और उन्हें लगता है “हो सकता है पञ्च के हृदय में इसबार परमेश्वर आकर बस जाँय,संभवतः इसबार न्याय हो”….
पर हाय रे हतभागी हिन्दू.अन्ततः उसे आश्रित होना पड़ता है अदृश्य ईश्वर के न्याय पर ही।

प्रश्न कि छोटे न्यायघर क्या न्यायघर नहीं?उनके विवेकदृष्टि, न्यायपरिधि अपनी सीमा में सम्माननीय नहीं?
यदि उसने साक्ष्यों प्रमाणों के आधार पर किसी विषय को अपनी न्यायप्रक्रिया में विचारणार्थ रखा है, तो उसके अधिकारों को कुण्ठित करना,क्या उसकी गरिमा का अतिक्रमण नहीं?
कभी स्वतः संज्ञान लेते, तो कभी करोड़ों पेंडिंग पड़े केसों के बीच आधी रात को भी समूह विशेष के इच्छाओं को पूरा करने को कार्यालय खोलकर बैठ जाने की उनकी सुदीर्घ प्रवृत्ति,,स्पष्ट अतिक्रमण, विध्वंसक गतिविधियों को भी रक्षण संरक्षण देना,

क्या यह चरित्र,न्याय देश को अव्यवस्थित अस्थिर नहीं करते? आखिर कबतक ये सबसे बड़े न्यायघर अनियंत्रित स्वच्छन्द पक्षपाती कर्तब्यबोध रहित रहेंगे? न्याय शान्ति और सुव्यवस्था में आस्था रखने वाला समाज आखिर कबतक असहाय पीड़ित और न्यायविहीन रहेगा?
कौन देगा इन जिज्ञासाओं का समाधान,एक आस विश्वास?

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