एक तरफ जहाँ सबसे बड़े,असह्य पीड़ा को “मृत्युतुल्य कष्ट” कहा जाता है,,वहीं मृत्युसम अनुभव से गुजर चुके कुछ लोगों का कहना है कि जब उनकी चेतना डूबने लगी तो उन्हें लगा वे अचेत हो रहे हैं और उसके उपरांत अपूर्व शान्ति का उन्होंने अनुभव किया।उन्हें लगा प्रकाश के एक गहरे सुरँग में वे तेज गति से चले जा रहे हैं।
काश कि कोई मृत्यु में जाकर वापस आया मनुष्य निश्चय पूर्वक बता पाता कि वस्तुतः मृत्यु का अनुभव क्या और कैसा होता है।
इतना अनुमान तो मुझे है कि देह और प्राण(श्वास) के अलग होने के उपरांत भी “चेतना/मैं” तत्क्षण नहीं मरता।उसे अपने वर्तमान स्थिति को स्वीकारने में समय लगता है और इसी कारण सभ्यताओं के सभी समाजों में मृत्योपरांत जीव को जीवन से मुक्त होने हेतु प्रोत्साहित करने को कतिपय विधि विधान(मृत्योपरांत क्रियाकर्म) किये गए हैं।
कभी शल्यक्रिया क्रम में तो कभी रुग्णावस्था में, अचेत होने का सुदीर्घ अनुभव है मुझे।यदि मृत्यु ऐसी ही होती है, तब तो फिर कोई बात ही नहीं।क्योंकि चेतनक्षय के पूर्व क्षणमात्र को ही सही इतनी चेतना तो होती ही है कि ध्यान में अपने हिसाब से बात लायी जा सके। किन्तु जब कभी भीड़भाड़ में फँसने,पानी में डूबने या ऐसे ही अन्य किसी परिस्थिति में ऑक्सीजन की कमी के कारण दम घुटने जैसी स्थिति और छटपटाहट बनती है,,वैसी यदि मृत्युक्षण की अनुभूति होती है,,, फिर तो सचमुच यह भयदायक है।ऐसी स्थिति में ध्यान में ईश्वर आएँ, मन सुख शान्ति और सन्तोष से भरा हो,,,इसके लिए तो कठिन तपस्या(अभ्यास)और दृढ़ मानसिक तैयारी की आवश्यकता है।क्योंकि आमतौर पर छोटे मोटे विपरीत परिस्थिति,दुर्घटना काल में ही मष्तिष्क काम करना बन्द कर देता है,रटे हुए कंठस्थ पाठ(मन्त्र,प्रार्थना) ठीक से याद नहीं आते।फिर जाते समय जीवन के सबसे कठिन समय में क्या तो कुछ ध्यान में आएगा।
फलनवे मन्त्र से फलाना लाभ है,फलाने पाठ से यह यह यह यह मिलता है,,इस चक्कर में लोग जीवन में कई जप अनुष्ठान पाठ आदि पण्डिजी से करवा लेते हैं।कई लोग मन्त्र पाठ आदि किसी इलेक्ट्रॉनिक गैजेट में बजाकर सुन लेते हैं।किन्तु ध्यान रहे,कर्म का फल कर्ता को समानुपातिक मात्रा में ही उपलब्ध होता है।आपने संकल्प लेकर पण्डिजी को मन्त्र जपने बैठा दिया,पूजा करने का ठेका दे दिया,,,तो फल आपको पुनीत कर्म करवाने का अवश्य मिल सकता है,पर उक्त कर्म को करने का नहीं।
यदि आपको उक्त मन्त्र या अनुष्ठान का पूरा फल/प्रभाव चाहिए, तो पूरा कर्म भी स्वयं कीजिये।हाँ, विधि नहीं आती तो उसके लिए सहायता अवश्य ली जा सकती है,,ली जानी चाहिए भी।
यह सम्पूर्ण सृष्टि नाद से संचालित है(ॐ से उतपन्न होना आपने सुना ही होगा) और मन्त्र ध्वनि विज्ञान पर आधारित वह प्रभावकारी माध्यम है जिससे कहीं से भी कनेक्ट हुआ जा सकता है,किसी को भी प्रभावित कर लाभ पाया जा सकता है।सम्पूर्ण व्योम हममें और हम पूरे व्योम से,इस नाद सम्बन्ध से ही जुड़े हुए हैं। गहन शोध उपरान्त महर्षियों ने व्योम में उपस्थित ऊर्जा स्रोतों(देवताओं) को प्रभावित करने, उनसे ऊर्जा पाने हेतु ध्वनि समुच्चयों जिसे हम मन्त्र कहते हैं, प्रतिपादित किये हैं। इनका जाप(रिपीटेशन) यदि प्राण(श्वास) में अवस्थित हो जाय,…अर्थात, जैसे हम सोचकर,याद करके श्वास संचालित नहीं करते, बल्कि श्वसनक्रिया स्वतः संचालित रहता है।ठीक ऐसे ही हमारे बिना प्रयास के यह जाप साँस के साथ ही मन ही मन संचालित रहे,,,तब इसकी सिध्दि मानी जाती है।तब उक्त मन्त्र का पूरा फल व्यक्ति को प्राप्त होता है।और तब ही जीवन के अन्तिम क्षणों में उन मन्त्रों, ईश्वर का ध्यान, सुखद शान्ति सन्तोष और जगत से निर्लिप्ति का भाव मन में आ पाना सम्भव हो सकता है।
हे ईश्वर, आपने जो यह देह,सुन्दर जीवन,इतने रंग रस देखने भोगने का सुअवसर दिया, इसके लिए कोटि कोटि आभार…. “जेहि जोनि जन्मउँ कर्मबस, तँह रामपद अनुरागहु”…..भाव आ सकता है।