Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 43
भरद्वाज मुनि के आश्रम में रात बिताने के बाद प्रातःकाल भरत ने उनसे कहा, “मुनिवर! अब मैं अपने भाई के पास जाने के लिए आपसे आज्ञा लेने आया हूँ। मुझे बताइये कि श्रीराम का आश्रम कहाँ हैं और वहाँ पहुँचने का मार्ग कौन-सा है?”
तब भरद्वाज मुनि ने उत्तर दिया कि “यहाँ से लगभग तीस कोस दूर चित्रकूट नामक पर्वत है, जिसके उत्तरी किनारे से मन्दाकिनी नदी बहती है। उसके आस-पास का वन बड़ा रमणीय है। उस नदी और पर्वत के बीच श्रीराम की पर्णकुटी है। तुम हाथी-घोड़ों सहित अपनी सेना को लेकर यमुना के दक्षिणी किनारे वाले मार्ग से जाओ। आगे तुम्हें दो रास्ते मिलेंगे। उनमें से जो रास्ता बायीं ओर मुड़कर दक्षिण दिशा की ओर जाता है, तुम उसी से जाना। उस मार्ग से जाने पर तुम शीघ्र ही श्रीराम तक पहुँच जाओगे।”
तब मुनि को प्रणाम करके वे सब लोग उनके बताए मार्ग पर बढ़े।
बहुत देर तक यात्रा करने के बाद भरत ने वसिष्ठ जी से कहा, “ब्रह्मन! भरद्वाज जी ने जैसा वर्णन बताया था, हम अब वैसे क्षेत्र में आ पहुँचे हैं। इससे लगता है कि यही चित्रकूट पर्वत है तथा वह मन्दाकिनी नदी बह रही है। निश्चित रूप से श्रीराम की पर्णकुटी यहीं कहीं होगी।”
ऐसा कहकर उन्होंने शत्रुघ्न को आदेश दिया कि श्रीराम और लक्ष्मण का पता लगाने के लिए सैनिकों को वन में चारों ओर भेजा जाए।
कुछ समय बाद उन सैनिकों ने लौटकर भरत को सूचना दी कि ‘हमें एक स्थान से अग्नि का धुआँ उठता हुआ दिखा है। अवश्य ही श्रीराम और लक्ष्मण वहीं होंगे।’
यह सुनकर भरत को बहुत प्रसन्नता हुई कि अब श्रीराम के दर्शन दूर नहीं हैं।
चित्रकूट का वह वन श्रीराम को बहुत प्रिय लगता था। वे अक्सर सीता से कहते थे कि “यद्यपि मुझे राज्य से निकाल दिया गया है और मुझे अयोध्या से दूर रहना पड़ रहा है, किन्तु इस रमणीय पर्वत को देखकर मेरा सारा दुःख दूर हो जाता है। यह क्षेत्र कितना सुन्दर है! यहाँ अनेक प्रकार के पक्षी, मृग, चीते, रीछ, बाघ आदि हैं। यहाँ आम, जामुन, असन, लोध, प्रियाल, कटहल, धव, अंकोल, भव्य, तिनिश, बेल, तिन्दुक, बाँस, काश्मरी (मधुपर्णिका), अरिष्ट (नीम), वरण, महुआ, तिलक, बेर, आँवला, कदम्ब, बेत, धन्वन (इन्द्रजौ), बीजक (अनार) आदि के वृक्ष हैं, जो फूलों व फलों से लदे रहते हैं। यहाँ अनेक छोटे-बड़े जलप्रपात हैं। मैं इस मनोरम स्थान पर वर्षों तक रहूँ, तब भी मुझे अयोध्या से बिछड़ने का कोई शोक नहीं होगा। तुम्हारे और लक्ष्मण के साथ मैं यहाँ बड़ी प्रसन्नता से चौदह वर्ष बिता सकता हूँ।”
इस प्रकार की बातें करते हुए एक दिन श्रीराम और सीता बैठे हुए थे कि तभी भरत की सेना के आगमन से उठने वाली धूल और कोलाहल चारों ओर फैलने लगा। उसे सुनकर वन के पशु-पक्षी भय से इधर-उधर भागने लगे। यह देखकर श्रीराम ने कहा, “लक्ष्मण! तनिक देखो तो सही, यह भयंकर कोलाहल कैसा है? पता लगाओ कि ये सब पशु इस प्रकार क्यों भाग रहे हैं? कहीं सिंहों ने तो इन्हें नहीं डरा दिया है या कोई राजा अथवा राजकुमार यहाँ शिकार खेलने तो नहीं आ गया है? इस पर्वत पर तो अपिरिचित पक्षियों का आना भी कठिन है, फिर यहाँ इस समय कौन आ गया, इस बात का ठीक-ठीक पता लगाओ।”
यह आज्ञा मिलते ही लक्ष्मण जी तुरंत ही साल के एक वृक्ष पर चढ़ गए और चारों दिशाओं में देखने लगे। उत्तर की ओर देखने पर उन्हें हाथी, घोड़ों, रथों और सैनिकों से परिपूर्ण एक विशाल सेना दिखाई दी। उसे देखते ही उन्होंने श्रीराम से कहा, “आर्य! एक विशाल सेना दिखाई दे रही है। आप इस आग को तुरंत बुझा दीजिए, अन्यथा धुआँ देखकर वह सेना इसी ओर आ जाएगी। आप माँ सीता के साथ गुफा में बैठ जाइये, कवच धारण कर लीजिए और अपने धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा लीजिए।”
यह सुनकर श्रीराम ने कहा, “प्रिय लक्ष्मण! तुम अच्छी तरह देखो और अपने अनुमान से बताओ कि यह किसकी सेना हो सकती है?”
तब लक्ष्मण ने रथ पर लगी ध्वजा को बहुत ध्यान से देखा और उत्तर दिया, “भैया! उस रथ की ध्वजा पर मुझे कोविदार (कचनार) के वृक्ष वाला चिह्न स्पष्ट दिखाई दे रहा है। निश्चय ही यह कैकेयी का पुत्र भरत है, जो अयोध्या का राज्य पा लेने के बाद उसे निष्कंटक बनाने के लिए हम दोनों को मार डालना चाहता है। इसी कारण वह सेना लेकर यहाँ आ रहा है।”
“रघुनन्दन! इस भरत के कारण ही आपको राज्य के अधिकार से वंचित होना पड़ा है और हम तीनों को वन में कष्ट सहना पड़ रहा है। इसका वध करने में कोई अधर्म नहीं है, अतः आज मेरी यह इच्छा पूर्ण हो जाएगी। आज मैं कैकेयी और उसके सगे-संबंधियों और बंधु-बांधवों का भी वध कर डालूँगा।”
क्रोध के कारण लक्ष्मण अपना विवेक खो बैठे थे, किन्तु श्रीराम ने शांत मन से उन्हें समझाते हुए कहा, “लक्ष्मण! पिता के सत्य की रक्षा के लिए राज्य को त्याग कर और वनवास की प्रतिज्ञा करके अब यदि मैं युद्ध में भरत को मारकर राज्य छीन लूँ, तो सोचो पूरे संसार में मेरी कितनी निंदा होगी! ऐसे कलंकित राज्य को लेकर मैं क्या करूँगा? अपने ही भाइयों, मित्रों और प्रियजनों को मारकर जो राज्य या धन मिलता हो, वह विषाक्त भोजन के समान है। मैं उसे कभी ग्रहण नहीं करूँगा।”
“भाई लक्ष्मण! अपने पराक्रम से इस पूरी पृथ्वी को जीत लेना मेरे लिए कठिन नहीं है, किन्तु मैं अधर्म के मार्ग से राज्य नहीं पाना चाहता। भरत तो मुझे प्राणों से प्रिय हैं। वे बड़े भ्रातृभक्त हैं। मुझे तो लगता है कि मेरे वनवास के बारे में सुनते ही उनका चित्त व्याकुल हो गया होगा और इसी कारण स्नेहपूर्वक हम लोगों से मिलने के लिए ही वे यहाँ आ रहे हैं। अपनी माता कैकेयी को कठोर वचन सुनाकर और पिताजी को प्रसन्न करके वे मुझे राज्य देने के लिए आए हैं।”
“क्या आज तक भरत ने कभी तुमसे कोई अप्रिय व्यवहार किया है, जिससे तुम आज उनके विषय में ऐसी आशंका कर रहे हो? भरत को तो मुझसे इतना अधिक प्रेम है कि यदि मैं उनसे कहूँ कि यह राज्य तुम लक्ष्मण को दे दो, तो वे ‘बहुत अच्छा’ कहकर तुरंत ही ऐसा कर देंगे। तुम भरत के आने पर कोई कठोर बात न बोलना। यदि तुमने उनके विरुद्ध कुछ कहा, तो मैं उसे अपने ही विरुद्ध मानूँगा।”
यह सब सुनकर लक्ष्मण लज्जित हो गए। उन्होंने कहा, ‘“भैया! मुझसे भूल हुई। लगता है कि संभवतः हमारे पिताजी ही हमसे मिलने आ रहे हैं।”
तब श्रीराम ने कहा, “हाँ! मुझे भी लगता है कि हमारे वनवास के कष्टों का विचार करके स्वयं पिताजी ही हमें वापस घर ले जाने के लिए यहाँ आ रहे हैं। उनकी सवारी में रहने वाला विशालकाय गजराज शत्रुंजय भी सेना के आगे झूमता हुआ चल रहा है, किन्तु उस हाथी पर मुझे पिताजी का वह श्वेत छत्र नहीं दिखाई दे रहा है, इससे मेरे मन में संशय भी उत्पन्न हो रहा है।”
उधर भरत का आदेश पाकर उनकी सेना ने पर्वत के नीचे ही पड़ाव डाला और भरत ने शत्रुघ्न से कहा, “सौम्य! तुम इन निषादों को लेकर वन में चारों ओर श्रीराम की खोज करो। निषादराज गुह को भी उनके सैनिकों के साथ श्रीराम की खोज के लिए भेजो। मैं भी मंत्रियों के साथ पैदल ही वन में खोजूँगा। जब तक श्रीराम, लक्ष्मण या विदेहकुमारी सीता को न देख लूँ, तब तक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।”
भरत ऐसा कहकर सुमन्त्र व धृति को साथ लेकर उस ओर बढ़े, जहाँ से धुआँ उठता हुआ दिख रहा था। अनेक वृक्षों को पार करते हुए वे साल के ऊँचे वृक्ष पर चढ़ गए। वहाँ से उन्हें श्रीराम के आश्रम में सुलगती हुई अग्नि का धुआँ उठता हुआ दिखाई दिया। उसे देखकर उन्हें विश्वास हो गया कि श्रीराम वहीं होंगे। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। सबको इसकी जानकारी देकर वे गुह के साथ शीघ्रतापूर्वक उस आश्रम की ओर चल दिए।”
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा…

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