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विवाह, दाम्पत्य व पालन-पोषण बनाम संस्कृति संस्कार

by Umrao Vivek Samajik Yayavar
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विवाह के समय लड़की व लड़के को संस्कारों की कसौटी में मूल्यांकन करने का जबरदस्त प्रचलन है, जिसको परिवार व समाज की संस्कृति की रक्षा व समृद्धि के लिए लड़का लड़की को ठोंक बजाकर चुनना कहा जाता है। इस प्रक्रिया में बहुत सारी लड़कियां व लड़के अस्वीकृत किए जाते हैं, ताकि अपने पुत्र के लिए सेवाभावी संस्कारी पत्नी और पुत्री के लिए देखभाल करने वाला प्रतिष्ठित पति खोजा जा सके। आइए देखा जाए कि संस्कारों की मूल कसौटी के तत्व क्या होते हैं (दिखावटी तत्वों की बात नहीं की जा रही है)।

**संस्कारी-वधू**

लड़की अपने ही धर्म व जाति की हो, लड़की अप्सरा जैसी सुंदर हो, अमीर घर की हो या अच्छे वेतन व सुविधा वाली सरकारी या गैर सरकारी नौकरी करती हो या दोनो, खूब दहेज लेकर आए, भाई न हों तो और बेहतर ताकि माता पिता की चल-अचल संपत्ति में हिस्सा भी मिले, प्रतिष्ठित परिवार की हो ताकि लड़के वालों का सामाजिक कद भी बढ़ जाए इत्यादि प्रकार के संस्कारों से संपन्न लड़की को प्राथमिकता दी जाती है। इन मानकों वाली संस्कारी लड़की मिलने पर अगले चरणों में उसको लंगड़ेपन, गूंगेपन इत्यादि की जांच की जाती है। किसी प्रकार जुगत लगाकर लड़की के शरीर के आंतरिक अंगों को भी किसी विश्वसनीय महिला द्वारा देखे जाने का प्रयास किया जाता है ताकि शरीर में दाग-धब्बे आदि की जानकारी हो पाए। कुछ कट्टर संस्कृतिवान लोग तो लड़की के अंतः वस्त्र तक उतरवा कर जांच करना चाहते हैं, ताकि शरीर में छुपे हुए दाग व धब्बों की पूरी जानकारी मिल सके और वे लड़की के परिवार वालों से ठगा हुआ न महसूस करें।
**संस्कारी-दामाद**
लड़का अपने ही धर्म व जाति का हो। लड़के के माता पिता के पास चल अचल संपत्ति हो या लड़का ऊंचे वेतनमान व सुविधाओं की सरकारी या गैरसरकारी नौकरी करता हो या दोनो। लड़का सुंदर हो किंतु यदि लड़का बहुत अमीर है लेकिन बदसूरत है तो उसकी अमीरी के कारण उसको सुपात्र मान लिया जाता है। लड़का इकलौता हो तो और अच्छा, लड़के की बहन न हो तो और भी अच्छा। लड़का ऊपरी कमाई वाली सरकारी नौकरी में हो तो बहुत ही अधिक संस्कारी सुपात्र माना जाता है।
**वैवाहिक-जीवन**
अपवादों को छोड़कर विवाह होने के पश्चात कुछ दिनों तक दोनों पक्षों की ओर से सामंजस्य, संतुलन इत्यादि का ढोंग चलता है। लेकिन समय के साथ-साथ जब पति पत्नी ढोंग उतार कर अपने वास्तविक चरित्र के साथ जीना शुरू करते हैं, तो आपसी टकराहटें शुरू होतीं हैं। ऐसी स्थितियों में जो लोग अपने स्वार्थ व अहंकार से बाहर आकर संतुलन नहीं कर पाते हैं, वे अपने वैवाहिक जीवन को नर्क बनाते हैं। दरअसल लड़का, लड़की, माता, पिता इत्यादि यह भूल जाते हैं कि उनमें अच्छाई व बुराई दोनों ही हैं, उनकी परवरिश समाज व परिवार की अनुकूलता में ही हुई है। इसलिए अपवादों को छोड़ सभी खुद लगभग वैसे ही होते हैं जैसे उनके व अन्यों के पत्नी, पति, बहू, दामाद, पुत्र, पुत्री होते हैं।
विवाह संस्था में सहज व स्वतंत्र जीवन सहचरत्व का मूल्य विकसित करने के बजाय स्त्री व पुरुष के यौन संबंध से संतान पैदा करने व पैदा की गई संतान को अपने जैसा ही संकुचित, अनुकूलित, कुंठित व परतंत्र बनाने वाली संस्था बना दिया गया है; जिसमें मनुष्य के भावों, प्रेम व स्वतंत्रता आदि का कोई स्थान व महत्व नहीं है। सब कुछ बने बनाए ढांचे से ही तय होता है।
परिवार व विवाह संस्था के भावों व मूल्यों को अपनी जरूरत के अनुसार परिभाषित करके प्रायोजित करते हुए कुंठित व परतंत्र मानसिकता के व्यापाराना ढांचे को संस्कृति का नाम दे दिया गया है। यही कारण है कि वास्तविक जीवन-मूल्य, संस्कार, संस्कृति, स्वतंत्रता व चेतनशीलता इत्यादि मूल्य अपवाद-परिवारों में ही परिलक्षित होते हैं। लोग स्वार्थ, लिप्सा व बाजारू भोग के नशे के अंधेपन में यह भूल जाते हैं कि विचार, संस्कार, विनम्रता, शुद्धता, प्रेम, समर्पण, त्याग आदि मूल्य जीवन में जीवंतता से जिए जाते हैं। ऐसे लोगों की ईमानदारी, विश्वास व प्रेम का कोई ‘वास्तविक जीवन मूल्य’ नहीं होता। ऐसे लोग पूरा जीवन रोते झींकते गुजारते हैं और समय के साथ-साथ परिवार व समाज में जाने अनजाने ऋणात्मकता ही बढ़ाते हैं।
चूंकि विवाह संस्था के मूल ढांचे में ही सहज प्रेम उपेक्षित व तिरस्कृत किया जाता है, इसलिए बच्चों का पालन पोषण भी ढांचे की अनुकूलता के संकुचन व विकृति के दायरे में होता है। अनुकूलता के प्रभाव क्षेत्र से बाहर आने का प्रयास करना ही संस्कृति व संस्कार का ध्वस्त होना, विरोध होना, असंस्कारी होना मान लिया जाता है। माता पिता व परिवार द्वारा बच्चों में स्वतंत्र व वैज्ञानिक दृष्टिकोण की संभावना तक की भ्रूण हत्या की जाती है। बच्चे स्वतंत्र अस्तित्व वाले चेतनशील जीवंत मनुष्य के बजाय माता पिता की व्यक्तिगत संपत्ति माने जाते हैं; यही कारण है कि माता पिता व बच्चों के संबंध सहज व मौलिक प्रेम के बजाय, अपेक्षाओं के व्यापाराना लेनदेन पर आधारित होते हैं। ऐसी अनुकूलता व कुंठित वातावरण मनुष्य व समाज का विकास व चेतनशीलता अवरुद्ध कर देते हैं, मानसिकता दूषित व कुंठित कर देते हैं। बच्चा मौलिकता व स्वतंत्रता के बजाय व्युत्पन्न अनुकूलता की परतंत्रता की ओर बढ़ता जाता है और इन्ही के सख्त व संकुचित दायरों में आजीवन कुंठित होकर रह जाता है। ऐसे ही चक्रों के कारण कुंठा व मानसिक परतंत्रता पीढ़ी दर पीढ़ी और गहरे व्याप्त होती चली जाती है।
*——विवेक उमराव——*
की लगभग 7 वर्ष पहले प्रकाशित पुस्तक
*”मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर”* से
{मूल्य लगभग 6500 रुपए प्रति, (भारत में लगभग 2500 रुपए प्रति)}

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