आर बाल्की ने अपनी फिल्म को डायलॉग दिया है न! ‘सिनेमा इज आर्ट, नॉट जेरोक्स कॉपी’, इस संवाद को बॉलीवुडिया वर्ग सुन ले, तो खुद को जीरो स्टार देकर शर्म से डूब मरे। इस लिस्ट में सुपरस्टार, मेगास्टार होंगे। बाल्की ने कोरा सच उड़ेल दिया है’
लेखक आर बाल्की ने भारतीय सिनेमा के लीजेंड गुरु दत्त साहब की आखिरी फ़िल्म ‘कागज़ के फूल’ के इर्दगिर्द अपनी चुप की थीम रखी है। कहानी फ़िल्म समीक्षक की मर्डर मिस्ट्री के साथ उठती है और सस्पेंस को लेकर कुछ किरदार लेकर आगे बढ़ती है। अरविंद माथुर के नेतृत्व में मर्डर से रहस्य हटाने के लिए इन्वेस्टिगेशन शुरू हो जाती है। इधर, कहानी नीला मेनन और डैनी के बीच प्रेम के फूल उगा जाती है। उधर, फ़िल्म समीक्षक सदमे में बैठे है। इस फ़िल्म को कितने स्टार दे। प्रेम के फूलों के बीच काँटो के राज को जानने के लिए फ़िल्म देखें। अधिकतर देख भी चुके होंगे।
स्क्रीन प्ले थ्रिलिंग और कसावट भरा है, बीजीएम भी अट्रेक्टिव है। लेकिन दूसरा हाफ थोड़ा हांफने लगता है। पहले की पकड़ को धीरे धीरे खोने लगता है और औसत रूप ले जाता है। जिस थ्रिल और सस्पेंस को पहला भाग रोककर रखता है, दूसरा हाफ आसानी से उसे दर्शकों के बीच रख देता है।
बाल्की ने अपनी चुप को, कई पंच फुल डायलॉग दिए है।
दुलकर सलमान! चुप, के सूत्रधार और केंद्र बिंदु है, पूरी फिल्म का बोझ युवा कलाकार के कंधों पर रखा गया है।सलमान ने फुलवाला डैनी और सेबेस्टियन गोम्स के बीच खुद को जिस अंदाज में बॉडी स्पेस दिया है, बेहतरीन लगते है। हाव-भाव भी गंभीर रहते हुए, प्रेम झलकाते है। गुरु दत्त के साथ वाले सीक्वेंस आँखों में नमी देकर ऐसा कनेफ्ट करते है, दुलकर में नजर आने लगते है। स्मार्ट परफॉर्मेंस है।
सनी देओल! अरविंद माथुर के साथ नजर तो आए है, स्क्रीन प्रिजेंस भी मिली है। कुछ नोटिफिकेशन न दे सके है। लगा अरविंद के साथ आना था, आ गए। उम्र के हिसाब से किरदार ठीक पकड़ा है, डेप्ट भी रही। इन्वेस्टिगेशन में इतना खो, खोते चले गए, खुलकर न आ सके।
श्रेया धनवंतरी! नीला मेनन के साथ खूबसूरत लगी है। जितना भी स्पेस मिला है ठीक कर निकली है।
पूजा भट्ट! पूजा और डॉ. जेनोबिया श्रॉफ क़िरदार का गेटअप कमोबेश सेम है। इससे बेहतर चॉइस न हो सकती थी।
राजा सेन! सीनियर फ़िल्म समीक्षक और चुप को स्क्रीन प्ले देने वाले सदस्य भी नजर आए है। बाकी कलाकार अच्छा कर गए है।
एडिटिंग! नयन एच. के. भद्र की डेब्यू फीचर फिल्म है, छोटी गलती कर दी। हालांकि बहुत सूक्ष्म है, जब डैनी अपने ओपनिंग सीक्वेंस में चाय के गिलास भरता है, लाइन से नीचे तक चाय भरता है। कट टू कट सीक्वेंस में जब गिलास हाथ में होते है, ऊपर तक भरे होते है। दरअसल, ऐसी गलतियां बड़ी न होती है, परन्तु सीन से ध्यान भटकाने की साजिश अवश्य करती है। फ़िल्म दो घण्टे की हो सकती थी। सस्पेंस को बरकरार और थ्रिलिंग रखा जा सकता था।
निर्देशन! आर बाल्की शुरुआत अच्छे से कर जाते है, क्लाइमैक्स वाले सेक्शन में पहुँचते ही ढीले पड़ गए है। सारे डिपार्टमेंट अच्छे से संभाल लिए है, एडीटिंग टेबल पर झपकी ले गए।
बाल्की ने चुप से बेहतर मैसेज जनरेट किया है, फ़िल्म निर्माताओं और फ़िल्म समीक्षकों के लिए, कंटेंट को निष्पक्षता के साथ बनाओ व देखों।
समीक्षकों ने फ़िल्म को पूरी निष्पक्षता के साथ देखकर समीक्षा करनी चाहिए। सूटकेस का वजन देखकर, या खुन्नस, द्वेष में आकर फ़िल्म को क्रिटिसाइज नहीं करना चाहिए। नज़दीकी सिनेमाघरों में फ़िल्म असफल रहती है, बाद में कल्ट रूप कैसे ले जाती है। अतीत झूठा था या वर्तमान फेक है।
यकीनन! जिन समीक्षकों ने इसे देखा होगा, उसके बाद इस फ़िल्म से पहले की रिलीज के बारे में गिल्ट फील हुआ होगा। ऐसे एटीट्यूड से सिनेमा को नुकसान है, समीक्षक के रिव्यु से माहौल बनाता है। दर्शक सिनेमाघरों में जुटते है, अगर उन्हें निष्पक्षता न मिले। तो ठगा सा महसूस करते है और फ़िल्म मेकर्स व समीक्षकों को गालियां उपहार के तौर पर भेंट कर देते है।
सिनेमा को समाज का आईना कहा जाता है ऐसे ही समीक्षक सिनेमा का आईना होना चाहिए, लेकिन अफ़सोस वर्तमान में दोनों ही आईने बायस्ड है। सिर्फ़ वही दिखाते है, जो जेब गर्म कर जाए।