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संजय भंसाली की ‘रानी पद्मावती’ ने मुझे बड़े धर्मसंकट में डाल दिया …..

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संजय भंसाली की ‘रानी पद्मावती’ ने मुझे बड़े धर्मसंकट में डाल दिया है। इस फ़िल्म को लेकर हो रहे विरोध और उसको प्रदर्शित न होने देने के लिये खिंची तलवारों ने मुझे यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि क्या मुझे, जो सेंसरशिप का विरोधी रहा है और जिसने जीवन भर प्रतिबंधित किताबो और फ़िल्म को पढ़ा, देखा और संकलन किया हो, उसको क्या इस फ़िल्म के प्रदर्शन किये जाने का विरोध का समर्थन करना चाहिये?

मैं जहां सेंसर का ही विरोधी हूँ वही सेंसर से पास हुई फ़िल्म का गैरकानूनी तरीके से प्रदर्शन से रोके जाने के प्रयास का और भी विरोधी हूँ। लेकिन आज रानी पद्मावती के प्रदर्शन के विरोध को लेकर अपने विचारों से लड़खड़ा गया हूँ। आज मेरी सेंसरशिप को लेकर वितृष्णा पर भारत मे सेक्युलर जमात के दोहरे चरित्र से उपजी वितृष्णा ज्यादा भारी पड़ रही है। मुझे इस बात का दुःख है कि सेक्युलरो ने मेरे खुलेपन और शालीनता का इतना बलात्कार किया है कि आज मुझे इस बात का विश्वास ही नही रह गया है कि संजय भंसाली बिना इतिहास को मसालेदार बनाय अपनी सर्जनात्मकता का निर्वाह कर सकते है और इस प्रयास में रानी पद्मावती की आत्मा को छिन्न भिन्न करने से बच सकते है। 

मुझे जहां फ़िल्म के प्रदर्शन को लेकर हो रहे विरोध का विरोध है वही संजय भंसाली द्वारा रानी पद्मावती को लेकर हिन्दू संवेदनाओं की समझ पर संशय भी है। मेरा यह संशय संजय भंसाली के फिल्मी इतिहास को देखते हुये और भी प्रबल है। वैसे तो फेसबुक पर मैं 2013 से लिख रहा हूँ लेकिन फिल्मो का शौकीन होने कारण, उससे पहले फिल्म के ब्लोग्स पर, अंग्रेजी में लिखता था। मैंने आज से करीब 9 साल पहले, जब संजय भंसाली की 2007 में ‘सांवरिया’ आयी थी तब संजय भंसाली की एक फिल्मकार के रूप में उसकी एक समालोचना लिखी थी। आज जब संजय भंसाली के पक्ष में दलीले दी जारही है तब मैं अपने उसी लेख को आधार बना कर उसकी पिछले 10 सालो की फ़िल्म की यात्रा को देखते हुए, उन दलीलों को नकारता हूँ।

संजय भंसाली, मुम्बई मसाला फिल्म की पैदाइश है जो बड़े कैनवास पर, सितारों को लेकर, फिल्म बनाते आये है। इसमें कोई शक नही है की उनकी फिल्म में फोटोग्राफी और संगीत बड़े प्रभावी होते है। इसमें भी कोई शक नही है की वो अपने निर्देशन में कैमरे के एंगेल को बड़ी सिद्धस्तता के साथ प्रयोग करते है और भव्य सेटों को रंगों से भर देते है। संजय भंसाली हमेशा से अपना कुछ बनाने की प्रेरणा दुसरो से लेते रहे है और आर्टिस्टिक क्रिएटिविटी के नाम पर मूल श्रोत में परिवर्तन करते रहे है। उनकी यह सर्जनात्मकता, कपोल कल्पित कहानी के लिए तो ठीक है लेकिन इतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनने वाली फिल्म के लिए यह इस तरह की सर्जनात्मकता खतरनाक है।

भंसाली की एक निर्देशक के तौर पर पहली फिल्म, ‘ख़ामोशी ए म्यूसिकल’ थी। यह फिल्म चर्च और ईसाइयत की पृष्टभूमि पर थी जिसमे सलमान खान के राज के चरित्र को छोड़ कर सब ईसाई थे। यह फिल्म तकनिकी और संगीत के रूप में तो काबिले तारीफ थी लेकिन भंसाली की एक निर्देशक के तौर पर उनकी ही लिखी पठकथा पर पकड़ ढीली थी। कहानी और पठकथा को लेकर अपनी इसी कमजोरी को छुपाने के लिए संजय भंसाली ने अगली फिल्मो के लिए दूसरे श्रोतो से प्रेरणा ली है और उसमे अपनी क्रिएटिविटी दिखाने के लिए बराबर उसमे छेड़ छाड़ की है। 

उनकी अगली फिल्म, ‘हम दिल दे चुके सनम’, जो पद्मनी कोल्हापुरी, अनिल कपूर, नसीरुद्दीन शाह अभिनीत ‘वो सात दिन’ की नकल थी। भंसाली ने फिल्म का कैनवास बड़ा करने के लिए कहानी को मुम्बई के उपनगर से उठा कर राजस्थान की हवेली पर बैठा दिया था। फिल्म का क्लाइमैक्स इटली में रखा था वहां उन्होंने, बिना किसी कारण, कहानी के मूल चरित्र से अलग हटकर, चर्च को  पृष्टभूमि में डाल दिया था।

इसके बाद उनकी ‘देवदास’ आयी जो की भंसाली ने ओपरा स्टाइल में बनाई थी। फिल्म का काल वही रखते हुए भी भंसाली ने आर्टिस्टिक क्रिएटिविटी के नाम पर शर्तचन्द्र के उपन्यास की आत्मा की हत्या करने से कोई गुरेज़ नही रक्खी थी। फिल्म भव्य थी, लेकिन शरतचन्द्र के पात्रों में जीवन्तता का अभाव था। 1900 की कहानी का हर पात्र 2000 में जीता हुआ, नकली था। इसके बाद भंसाली ने अमिताभ बच्चन को लेकर ‘ब्लैक’ बनाई यह फिल्म हॉलीवुड की फिल्म ‘The Miracle Worker’ की नकल थी। हॉलीवुड की फिल्म हेलेन केलर की जीवनी पर आधारित थी जहाँ  मूक बधिर अध्यापक ऐनी सुल्लिवन एक महिला होती है जिसे ब्लैक में पुरुष(अमिताभ बच्चन) बना दिया गया था। यह फिल्म भी भव्य थी और उसके कई द्र्श्य ओपेरा स्टाइल ही शूट किये गए थे। उसके क्लाइमैक्स में भी नर्सेगिकता की जगह उसने ओपेरा की कल्पनाशीलता का ही आलिंगन किया था। इस फिल्म में रानी मुखर्जी ईसाई ही दिखाई गयी थी और पठकथा में पूरा वातावरण चर्च और कान्वेंट का ही लिया गया था।

उसके बाद भंसाली ने ‘सावरिया’ बनाई जो रुसी लेखक फ्योदोर दॉस्तोएव्स्की की लघु कहानी,’वाइट नाइट्स’ पर आधारित थी। उस एक छोटी कहानी पर भंसाली ने एक बार फिर पूरी तरह से ओपेरा स्टाइल में बड़ी सी फिल्म बनाई। इस फिल्म में हर सेट नाटक के लिए सजाये गया स्टेज जैसा था। इस में हीरो का नाम राज था लेकिन उसको जो पनाह देती है वह लिल्लीअन एक बूढी औरत होती है जो ईसाई दिखाई गयी है। राज जिस लड़की से मुहब्बत कर बैठता है वह सकीना होती है जो अपने प्रेमी ईमान का इंतज़ार कर रही होती है जिसने ईद के दिन आने का वादा किया था। भंसाली की एक पठकथा लेखक के रूप में मुसीबत यही है की उसको एकाकी में हिन्दू चरित्र समझ में नही आते है और उसके लिए, कहानी की मांग न होते हुये भी मुस्लिम या ईसाई चरित्र को कहानी का हिस्सा बना देता है। यह हिन्दू ईसाई मुस्लिम का कॉकटेल कहानी की जरूरत नही होती बल्कि संजय भंसाली की खुद की जरूरत होती है। यही  पर वह बईमान हो जाते है और उनकी क्रिएटिविटी दागदार हो जाती है।

उसके बाद उसने बनाई,’गुजारिश’, जो की एक स्पेनिश फिल्म,’The Sea Inside’ पर आधारित थी। इस फिल्म में भी हीरो हीरोइन(ऋतिक रोशन और ऐश्वर्या राय) ईसाई ही है और जो एक चरित्र, ऋतिक का शिष्य बनता है उसे ओमर सिद्दीकी नामक एक मुस्लिम को ही दिखाया गया है।

अब तक तो आप समझ ही गए होंगे की संजय भंसाली फिल्मकार के रूप में जैसे भी हों उनमे हिन्दू चरित्रों और वातावरण को समझने की काबिलियत और संवेदनशीलता बिलकुल भी नही है। मैं नही समझता हूँ की संजय भंसाली ने जो कुछ भी किया वह किसी सोची समझी रणनीति के कारण किया है बल्कि मैं यह कहूंगा की उनकी अंतरात्मा नर्सेगिक रूप से, हिन्दू चरित्रों और उसके वातावरण को समझने के लायक नही है। यही कारण है की जब वह ‘गलियों की रासलीला राम लीला’ या ‘बाजीराव मस्तानी’ बनाता है तो राम और लीला के किरदार भौड़े हो जाते है और बाजीराव एक महान सेनापति से मुस्लिम रखैल के लिए कमजोर प्रेमविहल प्रेमी बनजाता है।

अब संजय भंसाली अपनी आर्टिस्टिक क्रिएटिविटी ‘पद्मावती’ में दिखाएंगे जहाँ वह इस पद्मावती को बनाने के लिए न इतिहास का सहारा ले रहे है और न ही किसी भारतीय श्रोत को ले रहे है बल्कि वह इसके लिए 1923 में अल्बर्ट रोसल द्वारा रचित बैले ‘पद्मावती’ को आधार बना रहे है। संजय भंसाली ने 1998 में पेरिस में इस बैले के आधार पर ‘पद्मावती’ ओपेरा का निर्देशन किया हुआ है, जिसके लिए उन्हें अंतरष्ट्रीय रूप से ख्याति भी मिली थी।

आज मैं संजय भंसाली के समर्थको से कहूंगा की मुझे

‘पद्मावती’ की पठकथा देखने की जरुरत नही है क्योंकि संजय भंसाली को हिन्दू चरित्रों और उनकी संवेदनशीलता को समझने की काबिलियत बिलकुल भी नही है। ‘पद्मावती’ ओपेरा में खिलजी को एक दिल जले आशिक के रूप में पेश किया गया है जो रानी पद्मावती की अद्वितीय सुंदरता के बारे में जानकार मोहित हो गया है और जो दिन रात उसको पाने के लिए कामाग्नि में जलता रहता है। ओपेरा के अंत में जब खिलजी की हवस से बचने के लिए पद्मावती अग्निकुंड में कूद कर जब जान देती है तब उसे पश्चाताप की आग में जलता हुआ दिखाया गया है। अब अलाउद्दीन खिलजी ऐसा दरिंदा, जिसके नाम से हिंदुओं में घृणा की अग्नि प्रज्वलित हो जाती हो, उस ऐसे चरित्र से संजय भंसाली कैसे न्याय कर सकता है, जिसमें हिन्दू संवेदनाओ को छूने का सामर्थ्य नही है?

संजय भंसाली आज तक, किसी भी फिल्म की पठकथा में हिन्दू चरित्रों और संवेदनाओं को समझने में असफल रहे है। उन्होंने हमेशा से चर्च, ईसाई या मुस्लिम चरित्रों को गढ़ कर अपनी इस कमजोरी को छुपाया है। भंसाली, ओपेरा स्टाइल फिल्म बनाने के आदि है जहाँ अतिशयोक्तियों और कल्पनाशीलता का पूरा प्रवाह रहता है। मेरा विश्वास है की उनकी यह सर्जनात्मकता, इतिहासिक विषय पर फिल्म बनाने के बिलकुल भी सुयोग्य नही है। उनको ‘पद्मावती’ ऐसे विषय पर, जो भारत के इतिहास की त्रासदी का हिस्सा है, पर बम्बईया सर्जनात्मकता की छूट नही मिलनी चाहिये।

इस सब के बाद भी, क्योंकि मैं प्रतिबन्ध का विरोधी हूँ,  यह उम्मीद करता हूँ की संजय भंसाली ने रानी पद्मावती को लेकर उफ़न रहे हिन्दू संवेदनाओं का संज्ञान लिया होगा और फ़िल्म की स्क्रिप्ट में फंतासी का अभाव रखते हुये, उन्होंने इतिहास को सही परिपेक्ष में दिखाया होगा। 

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