भारतीयों के लिए ‘एक्सिस मुंडी’ के रूप में वर्णित सुमेरु पर्वत इतना महत्वपूर्ण क्यों रहा है कि प्राचीनतम महाकाव्यों से लेकर मुझ अनाम विद्यार्थी तक इसकी ओर सम्मोहित हैं?
क्योंकि अन्य सभ्यताओं में एक्सिस मुंडी प्रतीकात्मक है लेकिन भारतीयों के लिए वह वास्तविक भौगोलिक संरचना है जिसके विस्तार में उनकी सभ्यता विकसित हुई। अतः उन्होंने उसकी भौगोलिक अवस्थिति को सदैव ढूंढने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिए–
1)#सूर्यसिद्धांत में उल्लेख है कि सुमेरु जम्बूद्वीप की भूमि में पृथ्वी के केंद्र में स्थित है ।
2)महाभारत के सभा पर्व के अनुसार “निषध पर्वत के उत्तर और मध्य में मेरु या महामेरु पर्वत स्थित है।”
3)महाभारत के ही अनुसार अर्जुन की विजय यात्रा में हिमालय और उससे पर क्षेत्रों का क्रमवार विवरण जिसके अनुसार — “सर्वप्रथम श्वेतवर्ष, फिर किम्पुरुषवर्ष, फिर हाटक, फिर मानसरोवर, फिर गंधर्वदेश अर्थात गंधमादन क्षेत्र और इसके बाद आखिरी हरिवर्ष। इनमें मानसरोवर के परवर्ती क्षेत्रों को वर्तमान मध्यएशिया में वंक्षु नदी के उत्तरवर्ती क्षेत्रों के रूप में पहचाना जाता रहा है।
4)वनवास अवधि में पाशुपतास्त्र प्राप्ति के लिये अर्जुन का इंद्रकील तक का मार्गक्रम — “पहले हिमवान फिर गंधमादन और फिर इंद्रकील पर्वत।” इंद्रकील पर्वत को कुनलुन या तियेन शान के रूप में पहचाना जा सकता है। ‘तियेन शान’ का अर्थ भी चीनी भाषा में स्वर्गिक राज्य या देवस्थान ही है।
5)सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकेत मिलता है, महाभारत के स्वर्गारोहिणी पर्व में पांडवों के स्वर्गारोहण यात्रा में अंतिम चरण के मार्गक्रम के विवरण में — “उत्तर दिशा में सर्वप्रथम महापर्वत हिमालय पर किया।इसके बाद उन्हें बालू का समुद्र मिला और साथ ही उन्होंने महापर्वत मेरु का दर्शन किया।”
यह विवरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण और आज के भूगोल के करीब है। अगर हिमालय को पार करते हैं तो आज भी एक बालू और बर्फ का समुद्र अर्थात ठंडा रेगिस्तान दिखाई देता है और यह है आज का ‘तकलामाकन रेगिस्तान’। इसका सीधा तात्पर्य है कि पांडवों की मृत्यु तकलामाकन रेगिस्तान में हुई और उनका लक्ष्य था इंद्रलोक अर्थात ‘स्वर्ग’ तक पहुंचना।
हाल ही में तकलामाकन रेगिस्तान में हुई खुदाई से बर्फ में दबी कई ‘ममी’ और आर्य संस्कृति के अवशेष भी वहाँ मिले हैं यद्यपि अंतिम तौर पर अभी भी यह क्षेत्र गहन पुरातात्विक अनुसंधान की बाट जोह रहा है ।
भारतीय आर्यों की देवों की भूमि के प्रति यह उत्सुकता निरंतर बनी हुई थी जो स्वाभाविक भी थी, लेकिन वैसा अतिरेकपूर्ण विवरण वाला वह दैवीय पर्वत उन्हें नहीं मिल पाता था, मिल भी नहीं सकता था।
इसीलिये #नरपतिजयाचार्यसवरोदय , नौवीं शताब्दी का एक पाठ, जो यामल तंत्र के ज्यादातर अप्रकाशित ग्रंथों पर आधारित है, उल्लेख करता है:
“सुमेरुः पृथ्वी-मध्ये श्रूयते दृश्यते न तु”
अर्थात सुमेरु को पृथ्वी के केंद्र में सुना जाता है, लेकिन वहां नहीं देखा जाता है।
स्पष्ट है कि देवसभ्यता की आदि भूमि अर्थात सुमेरु के अतिरेकपूर्ण पौराणिक विवरणों के कारण उसे चिन्हित करने में असफलता के कारण उसे मिथकीय पर्वत मान लिया गया लेकिन वास्तविकता में वह पामीर क्षेत्र के आसपास का पर्वतीय क्षेत्र ही है जिनमें से कई आसानी से पहचाने जा सकते हैं। उदाहरण के लिये मेरु पर्वत को पूर्व में मंदराचल पर्वत, पश्चिम में सुपार्श्व पर्वत, उत्तर में कुमुद पर्वत और दक्षिण में कैलास पर्वत से घिरा हुआ बताया गया है।
कुन लुन व पामीर ही दो ऐसे क्षेत्र हैं जो चारों ओर अन्य पर्वतों से घिरे हुए हैं।
स्पष्टतः मध्यएशिया के लोगों से भारतीयों के प्राचीनतम संबंध न केवल सांस्कृतिक हैं बल्कि आनुवंशिक भी हैं जो प्रागैतिहासिक काल से ही विकसित होना शुरू हो गए थे।
(पुस्तक #इंदु_से_सिंधु_तक के आधार पर जेएनयू में ‘मध्यएशिया व भारत’ विषय पर अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में दिये गए वक्तव्य का विस्तृत विवरण)