Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्कण्ड भाग 114
मकराक्ष की मृत्यु के बारे में सुनकर रावण बड़ा चिंतित हुआ। उसने अत्यंत क्रोधित होकर अब अपने पुत्र इन्द्रजीत को युद्ध के लिए जाने की आज्ञा दी। यह आज्ञा सुनकर इन्द्रजीत ने पिता को प्रणाम किया और युद्ध की तैयारी के लिए निकल पड़ा।
सबसे पहले उसने यज्ञ-भूमि में आकर हवन किया, फिर एक बकरे को जीवित ही पकड़कर अग्नि में झोंक दिया। इस प्रकार अपना यज्ञ पूर्ण करके वह अपना धनुष-बाण लेकर चार घोड़ों वाले अपने रथ पर आरूढ़ हो गया और अदृश्य होकर युद्ध-भूमि में जा पहुँचा।
श्रीराम और लक्ष्मण को देखते ही उसने अपना रथ आकाश में रोका और स्वयं अदृश्य रहकर वह उन पर अपने पैने बाणों की वर्षा करने लगा। तब श्रीराम और लक्ष्मण ने भी अपने-अपने धनुषों पर बाण चढ़ाए और दिव्य अस्त्रों का उपयोग किया।
इन्द्रजीत ने अपने बाणों के प्रभाव से आकाश में कोहरा फैला दिया था, जिससे उसे देख पाना संभव नहीं था। आकाश में उसके घोड़ों की टापों या रथ की घरघराहट का स्वर भी सुनाई नहीं पड़ता था। इस प्रकार छिपकर वह दोनों भाइयों पर अपने पैने नाराचों की वर्षा करने लगा। उसके बाणों से श्रीराम के पूरे शरीर में घाव हो गए।
ऐसी अवस्था में भी दोनों भाई सोने के पंखों से सुशोभित अपने तीखे बाण इन्द्रजीत पर छोड़ते रहे। इन्द्रजीत को घायल करके वे बाण भूमि पर गिर पड़ते थे। उसके तीखे सायकों को दोनों भाई अनेक भल्ल मारकर काट डालते थे। इन्द्रजीत अपने रथ को आकाश में तेजी से इधर-उधर घुमाता हुआ बड़ी फुर्ती से उन पर अस्त्र चला रहा था। उसकी गति, रूप, धनुष और बाणों को कोई नहीं देख पा रहा था। कितने ही वानर उसके आक्रमण से घायल होकर गिर पड़े या आहत होकर मारे गए।
यह देखकर लक्ष्मण को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने श्रीराम से कहा, “भैया! मैं अब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके समस्त राक्षसों का संहार कर दूँगा।”
यह सुनकर श्रीराम बोले, “भाई! केवल एक राक्षस के कारण भूमण्डल के सारे राक्षसों का वध करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। जो युद्ध न कर रहा हो, छिपा हो, हाथ जोड़कर शरण में आया हो, युद्ध से भाग रहा हो अथवा पागल हो गया हो, ऐसे व्यक्ति को तुम्हें मारना नहीं चाहिए। यह मायावी राक्षस बड़ा नीच है। इसने अन्तर्धान होकर आपने रथ को छिपा लिया है। अब मैं ही इसके वध का प्रयत्न करता हूँ। यह अब पृथ्वी में समा जाए, स्वर्ग को चला जाए, रसातल में छिप जाए या आकाश में ही रहे, किन्तु अब मेरे अस्त्रों से यह अवश्य मारा जाएगा।”
यह कहकर श्रीराम उस राक्षस को ढूँढने के लिए इधर-उधर दृष्टिपात करने लगे। उनके मनोभावों को समझकर इन्द्रजीत तत्काल ही युद्धभूमि को छोड़कर लंका में लौट गया, किन्तु वहाँ पहुँचने पर उसे युद्ध में मारे गए राक्षसों की मृत्यु याद आ गई। तब क्रोध से भरकर वह पुनः युद्धभूमि में लौट गया।
इस बार वह राक्षसों की एक बड़ी सेना लेकर पश्चिमी द्वार से बाहर आया। श्रीराम और लक्ष्मण को देखकर उस दुष्ट ने एक नया छल किया। माया से एक नई सीता का निर्माण करके उसने उसे अपने रथ पर बिठा लिया और सबको भ्रमित करने के लिए अपने साथ उसे युद्धभूमि में ले आया।
इन्द्रजीत को वापस आता हुआ देख सब वानर हाथों में बड़ी-बड़ी शिलाएँ उठाकर पुनः युद्ध के लिए आगे बढ़े। महाबली हनुमान जी सबसे आगे थे। थोड़ा आगे बढ़ने पर उन्होंने उसके रथ में उदास बैठी सीता जी को देखा। उनके शरीर पर एक ही मलिन वस्त्र था, सारा शरीर धूल और मैल से भरा हुआ था, वे बड़ी दुःखी और दुर्बल दिखाई दे रही थीं। हनुमान जी ने कुछ ही दिनों पहले उन्हें लंका में देखा था, अतः वे शीघ्र ही उन्हें पहचान गए। तब वे विचार करने लगे कि इस राक्षस का अभिप्राय क्या है? फिर वे प्रमुख वानरों को लेकर इन्द्रजीत की ओर दौड़े।
उन लोगों को अपनी ओर आता देख इन्द्रजीत के क्रोध की सीमा न रही। उसने तलवार म्यान से बाहर निकाली और सीताजी के केश पकड़कर उन्हें घसीटने और पीटने लगा। रथ पर बैठी हुई वह स्त्री भी ‘हा राम, हा राम’ चिल्लाने लगी। यह दृश्य देखकर हनुमान जी को बड़ा क्रोध आया और वे स्त्री का इस प्रकार अपमान करने के लिए उस नीच राक्षस को धिक्कारने लगे। अन्य वानरों के साथ मिलकर उन्होंने इन्द्रजीत पर आक्रमण कर दिया।
तब इन्द्रजीत ने अनेक बाण मारकर उन सबको रोक दिया। फिर वह हनुमान जी से बोला, “वानर! जिस सीता के लिए तुम सब यहाँ तक आए हो, मैं अभी तुम लोगों के सामने ही उसे मार डालूँगा। उसके बाद मैं राम-लक्ष्मण, सुग्रीव और उस अनार्य विभीषण का भी वध करूँगा। तुम कह रहे थे कि स्त्रियों को मारना नहीं चाहिए, लेकिन मैं कहता हूँ कि जिस कार्य से शत्रु को सबसे अधिक कष्ट पहुँचे, वही कार्य पहले करना चाहिए। अतः ले, मैं अभी सीता को नष्ट कर डालूँगा।”
ऐसा कहकर इन्द्रजीत ने अपनी तेज धार वाली तलवार से एक ही झटके में उस मायामयी सीता के दो टुकड़े कर डाले। फिर रथ पर बैठकर वह जोर-जोर से अट्टहास करता हुआ बोला, “देख ले वानर! मैंने तेरे राम की प्रिय पत्नी को इस तलवार से काट डाला। अब तुम लोगों का युद्ध करना व्यर्थ है।”
यह सब देखकर सब वानरों में विषाद छा गया और युद्ध लड़ने का सब उत्साह नष्ट हो गया। वे सब भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे।
उन सबको इस प्रकार भागता हुआ देखकर हनुमान जी ने कहा, “वानरों! तुम क्यों इस प्रकार विषादग्रस्त और भयभीत होकर भाग रहे हो? तुम्हारा शौर्य कहाँ चला गया? इस प्रकार पीठ दिखाकर भागना वीरों को शोभा नहीं देता। आओ, मैं युद्ध में सबसे आगे चलता हूँ, तुम सब मेरे पीछे आ जाओ।”
हनुमान जी की बातें सुनकर सब वानरों का धैर्य लौटा और वे पुनः हाथों में शिलाएँ तथा वृक्ष लेकर राक्षसों पर टूट पड़े। सीता के वध से हनुमान जी के मन में भी बड़ा शोक हो रहा था और उनका क्रोध अत्यंत बढ़ गया था। प्रलयंकारी यमराज के समान वे भयंकर क्रोधित होकर राक्षसों का संहार करने लगे। एक बहुत बड़ी शिला उठाकर उन्होंने इन्द्रजीत के रथ पर फेंकी। यह देखकर सारथी ने तत्काल रथ को बहुत दूर हटा लिया। वह शिला रथ से तो नहीं टकराई, किन्तु नीचे राक्षस सेना पर जा गिरी और उसने कई राक्षसों को कुचल डाला।
हनुमान जी का यह पराक्रम देखकर वानरों का जोश भी बढ़ गया और भारी गर्जना करते हुए वे भी राक्षसों पर झपटे। अनेक निशाचरों को उन्होंने मार गिराया और इन्द्रजीत की ओर भी वे बड़े-बड़े वृक्षों व शिलाओं को फेंकने लगे।
अपनी सेना को पीड़ित देखकर इन्द्रजीत आगे बढ़ा और बाणों की भीषण वर्षा करते हुए उसने अपने शूल, वज्र, तलवार, पट्टिश तथा मुद्गरों की मार से बहुत-से वानरों को हताहत कर दिया। तब हनुमान जी ने भी कुपित होकर उसके अनेक अनुचर राक्षसों का संहार कर डाला।
इस प्रकार राक्षस-सेना को भारी क्षति पहुँचाकर हनुमान जी ने वानरों से कहा, “बन्धुओं! अब लौट चलो। जिन सीता जी के लिए हम युद्ध कर रहे थे, वे तो मारी गईं। अब हमें इसकी सूचना श्रीराम एवं राजा सुग्रीव को देनी चाहिए। फिर वे दोनों जैसा कहेंगे, हम सब वैसा ही करेंगे।”
ऐसा कहकर हनुमान जी सब वानरों को लेकर श्रीराम की ओर लौट पड़े। उन्हें पीछे लौटता देखकर इन्द्रजीत भी युद्धभूमि से निकलकर निकुम्भिला देवी के मंदिर में चला गया।
आगे जारी रहेगा…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस

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