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चन्द्र प्रकाश द्विवेदी

Ashish Kumar Anshu

by Ashish Kumar Anshu
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उन्होंने कभी चेहरे पर नकाब नहीं पहना। उन्होंने कभी न्याय के लिए लड़ाई नहीं लड़ी। उनकी लड़ाई जबसे उनका वजूद है, आरएसएस परिवार के खिलाफ है। उन्होंने कभी अपना फोकस नहीं बदला।
हां जो उनमें शामिल नहीं हैं, उनका फोकस जरूर बदलता रहता है। वे कई बार समझ ही नहीं पाते कि उन्हें स्टैन्ड क्या लेना है? अगर ऐसा नहीं होता तो फिर चन्द्रप्रकाशजी द्विवेदी जिन्होंने चाणक्य जैसे उत्कृष्ट धारावाहिक का इतिहास रचा। जिन्होंने उस प्रतिकूल समय में भी प्रकाश, ध्वनि, परिधान, परिवेश जैसे सूक्ष्म से सूक्ष्म बिन्दूओं पर मनन किया। चाणक्य बनाते हुए उनका ध्यान रखा। पुराने एपिसोड आज भी यू ट्यूब पर कई कई बार देख कर भी लगता है कि उसे फिर एक बार देख लिया जाए। फिर एक लंबी यात्रा पूरी करके चन्द्रप्रकाशजी ‘पृथ्वीराज’ तक पहुंचे। उनकी फिल्म में पृथ्वीराज तो जीत गए लेकिन अपने प्रशंसकों के बीच चन्द्रप्रकाशजी हारे हैं।
दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मानवाधिकार के लिए लड़ते हुए नजर आते हैं, कभी वे न्याय के लिए लड़ते नजर आते हैं, कभी समलैंगिकता के पक्ष में, कभी जातिवाद के विरोध में, कभी स्त्रीवाद के लिए मैदान में होते हैं। लेकिन इन सारी लड़ाइयों को लड़ते हुए उनका अपना फोकस नहीं बदलता। उनका निशाना और शिकार तय है। वे बिल्कुल कन्फ्यूज नहीं है। वर्ना झारखंड में समुदाय विशेष पर चली गोली के बाद यह एक राष्ट्रव्यापी मुद्दा बन सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हजरत आयशा या खदीजा का जिक्र आने पर नारीवादियां कुरआन को केन्द्र में रखकर लेख लिख सकती थी। जैसा वह रामायण और महाभारत के संदर्भ में करती रहीं हैं। लेकिन कुरआन का प्रसंग आते ही सारी नारीवादियां खामोश हो जाती हैं, कमलेश तिवारी, नुपूर शर्मा, अमन चोपड़ा की कहने की आजादी पर कोई संपादकीय नहीं लिखता, यह सब देखकर भी आप नहीं समझ पा रहे कि उनका फोकस साफ है।
कन्फ्यूज सिर्फ इस गोले के लोग हैं।

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