Home विषयमुद्दा स्वाध्याय का स्तर : लफ्फाज, बकबकिया, या सतही मानसिकता….

स्वाध्याय का स्तर : लफ्फाज, बकबकिया, या सतही मानसिकता….

by Umrao Vivek Samajik Yayavar
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लगभग 8-9 साल पहले जब मैंने फेसबुक पर बताया कि मैंने अपने जीवन में स्कूल, यूनिवर्सिटी, शोध इत्यादि डिग्री कोर्सों में पढ़ी जाने वाली किताबों के अतिरिक्त 40 हजार से अधिक किताबें पढ़ी हैं। तब कई लोगों ने हिसाब-किताब लगाया और मुझे बताया कि जीवन भर में भी इतनी किताबें नहीं पढ़ी जा सकतीं हैं। आज भी कुछ नए-पुराने लोग कुछ ऐसी ही गुणा-गणित लगाकर मेरी बात का उपहास उड़ाते रहते हैं। दरअसल गुणा-गणित लगाने वाले बिना अपवाद वही लोग होते हैं जो झूठ कितना भी बोलें, लफ्फाजी कितना भी बतियाएं, लेकिन उनका स्वाध्याय से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं होता है। स्वाध्याय के नाम पर घटिया उपन्यासों को पढ़ने के अलावा यदि दो-चार-दस साहित्यिक उपन्यास भी पढ़ लिए हों, तो स्वाध्याय के नाम पर यही उनके जीवन की उपलब्धि होती है। अपने आपको चिंतक मान लेते हैं, स्वाध्यायी मान लेते हैं। बिना कविता, बिना कहानी, बिना उपन्यास चरित्र की गंभीर विश्लेषण वाली किताब तो संभवतः एक भी नहीं पढ़ी होगी, कुछ पन्ने पलटने पर ही मन उचट जाता होगा।
ऐसे लोगों की कल्पना यही होती है कि कैसे कोई हजारों किताबें पढ़ सकता है। जिन लोगों का गंभीर स्वाध्याय से कोई लेना-देना नहीं, उनके लिए यह एक असंभव व अकल्पनीय बात हो सकती है, होती ही है। अब आगे जो बात कहने जा रहा हूं, वह बात वही लोग बेहतर समझ सकते हैं, जिन्होंने व्यापक, विविधतापूर्ण व विश्लेषणात्मक स्वाध्याय किया होता है। डिग्री कोर्सों व प्रतियोगी परीक्षाओं के चक्कर में किताबों का अध्ययन करने वाले भी इस श्रेणी में नहीं आते हैं, इसलिए बड़ी संभावना है कि यह बात उनके भी पल्ले न पड़े। यहां बात स्वतःस्फूर्त जिज्ञासु व ऑब्जेक्टिव ज्ञान की भूख रखने वाले अध्ययनशील लोगों की हो रही है। जब आप अपने अंदर व्याप्त जिज्ञासा व जानने समझने की अदम्य भूख के लिए स्वाध्याय करते हैं। आप विभिन्न दिशाओं, विभिन्न आयामों की किताबें पढ़ते हैं। आप विश्लेषणात्मक किताबें पढ़ते हैं। तो शुरुआत में आपकी किताब पढ़ने की गति धीमी होती है, क्योंकि आपका मस्तिष्क व बुद्धि व मेमोरी-डाटा इत्यादि का विकास हो रहा होता है। सरल भाषा में इसे नींव का तैयार होना कह सकते हैं। जितनी विस्तृत व मजबूत नींव, उतना ही बड़ा व ऊंचा भवन खड़ा कर सकते हैं।शुरुआत में यदि कुछ सौ पेज की किताब पढ़ने में यदि एक या दो या तीन दिन का समय लगता है। कुछ महीनों बाद जब अनेकों किताबें पढ़ चुकी गई होती हैं।
तो क्रमशः एक ऐसा समय आता है जब कुछ सौ पेज की किताब भी कुछ घंटे में पढ़ सकते हैं। किताब पढ़ने व समझने की क्षमता मस्तिष्क में बनाई गई नींव के आधार पर निर्धारित होती है। समय के साथ किताब पढ़ने की गति इतनी तेज हो सकती है कि कुछ सौ पेजों की किताब भी महज एक घंटे में पढ़ी जा सकती है। ऐसा नहीं है कि किताब पढ़ने की गति व समझने इत्यादि की क्षमता किताबों की संख्या के ऊपर निर्भर करती है। मान लीजिए यदि कोई इतिहास की किताबें पढ़ता है तो उसकी क्षमता गणित की किताबों के लिए नहीं बन जाएगी, इतिहास की मोटी किताब को कुछ घंटो में पढ़ने व समझने की क्षमता रखने वाला गणित की साधारण सी किताब को पढ़ने समझने में कई दिन या कई सप्ताह या कई महीने भी लगा सकता है। वैसे ही गणित की मोटी किताब को कुछ घंटों में पढ़ लेने की क्षमता रखने वाला इतिहास की किताब को समझने में कई सप्ताह या कई महीने भी लगा सकता है। किताब पढ़ने की गति व समझने की क्षमता इत्यादि इस तत्व पर निर्भर करता है कि मस्तिष्क में उस आयाम की नींव कैसी है। अभ्यास, रुचि, एकाग्रता, लंबे समय तक पढ़ते रहने की दक्षता व इन सबकी निरंतरता, इत्यादि भी प्रमुख मूल तत्व होते हैं।
जिन लोगों को गंभीर स्वाध्याय का अंदाजा नहीं है, उन लोगों के अंदर यदि इस मुद्दे को समझने की ईमानदार इच्छा है तो उनको कुछ अंदाजा लग सके इसलिए कुछ साधारण उदाहरण दे रहा हूं। जो लोग जासूसी उपन्यास पढ़ने का शौक रखते हैं। वे मोटे-मोटे उपन्यासों को कुछ घंटों में खतम कर डालते हैं, जबकि उन्हीं उपन्यासों को नया पाठक कई-कई दिन का भी समय ले लेता है खतम करने में। जो लोग गणित या भौतिक या रसायन या जीव-विज्ञान इत्यादि की किताबों का अध्ययन करते हैं और रुचि रखते हैं। वे लोग इन विषयों की कठिन किताबों को भी सरलता से पढ़ व समझ लेते हैं। जबकि बहुत ऐसे लोग होते हैं जो इन विषयों की साधारण किताबों को ही पढ़ने समझने में लंबा समय लेते हैं।
समाज में कम लोग ही सही लेकिन ऐसे लोग भी होते हैं जिनको समाज के विभिन्न मुद्दों, उन्नति, सामाजिक समाधान, सामाजिक मनोविज्ञान, वैयक्तिक मनोविज्ञान व कंडीशनिंग इत्यादि की समझ विकसित करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों व दिशाओं का स्वाध्याय करते हैं। अपना जीवन खपाते हैं, इनमें से ऐसे लोग भी होते हैं जो प्रतिवर्ष हजारों किताबें भी पढ़ डालते हैं, किसकी कितनी भूख है कौन कितना व्यापक समझ विकसित करना चाहता है, इस पर निर्भर करता है।
मेरे एक मित्र हैं, योरप के हैं, प्रोफेसर हैं। दुनिया में बहुत अधिक नाम है, दुनिया की अनेक सरकारें उनसे सलाहें लेती हैं। उन्होंने 11 (ग्यारह) विषयों में PhD की है, गणित विज्ञान समाजशास्त्र जैसे विषयों में। वह भी दुनिया की ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों से (थीसिस चुराकर या नकल करके या सतही कामचलाऊ तरीके से नहीं)। इतने विद्वान कि एक साथ कई-कई PhD करते थे, अभी PhDयों में किए गए शोध अंतर्राष्ट्रीय स्तर के रहे। अब यदि प्रति PhD के हिसाब से टपोरी मानसिकता के साथ अंकगणित लगाई जाए तो कई पुश्तों तक भी PhD नहीं कर पाते। सैकड़ों किताबें लिख चुके हैं, पचासों हजार किताबें पढ़ चुके हैं क्या मालूम पढ़ी गई किताबों की संख्या लाखों में हो। दुनिया बड़ी है, जंगलों में नंगे घूमते मानव से अंतरिक्ष में कब्जा करने तक, मनुष्य पान की पीक थूकते हुए नहीं पहुंचा है। संख्या में कम ही सही लेकिन अलग तरह के लोग भी होते आए हैं, होते हैं, आगे भी होते रहेंगे। सतही मानसिकता के नशे में धुत होकर उपहास उड़ाने की बजाय सीखने समझने की मानसिकता होनी चाहिए। जरूरी नहीं कि हमारी सीमित सोच के दायरे के भीतर ही पूरी दुनिया आती हो।
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विवेक
“सामाजिक यायावर”

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