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‘किस्सागो’- कहानी कहने वाला

by Rudra Pratap Dubey
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एक शब्द है ‘किस्सागो’, जिसका अर्थ होता है कहानी कहने वाला। किसी ‘समय विशेष’ की कहानियां सुनाने वाले लोग होते हैं किस्सागो और उनकी ये स्टाइल कहलाती है किस्सागोई। किस्सागो अपने स्वर के उतार-चढ़ाव, म्यूजिक और लाइट इफेक्ट के साथ श्रोताओं को उसी समय में ले जाने की कोशिश करते हैं और फिर कहानी सुनाते हैं।
ठीक इसी तरह कथावाचक भी होते हैं वह भी लगभग-लगभग तयशुदा वेशभूषा के साथ बैठते हैं और किसी समय विशेष की ही कहानी को कहते हैं। अंतर मात्र इतना है कि किस्सागो के लोग पैर नहीं छूते लेकिन कथाकार पिछले दो दशकों से ‘संत’ तक के दर्जा को छू ले रहे हैं।
“जो मेरा हो नहीं पाया, वो तेरा हो नहीं सकता” लिखने वाले कुमार विश्वास जी को धन्यवाद है कि जब से उन्होंने अपने कंधे पर शॉल डालकर और मंच पर अकेली रखी कुर्सी पर बैठकर संगीत के साथ ‘राम’ पर बात करना शुरू किया तो समझ में आया कि रामकथा कहना सिर्फ किस्सागोई या कहानी कहने की एक विधा भर है। असल बात ये है कि राम की कहानी इतनी ‘अमर’ है कि इसे कोई भी कहे, लोग राम के नाम पर आ ही जाते हैं, हाँ लेकिन किस्सागो के ज्ञान और वाणी प्रवाह से उसकी कहानी में श्रोताओं की संख्या जरूर घटती-बढ़ती है।
वास्तव में आजकल की कथाएं पूरी तरह इवेंट मैनेजमेंट है। कथा से पहले प्रेस कांफ्रेंस होती है, शहर भर में बोर्ड लगते हैं, कथाकार से स्पेशल लोगों को मिलने की सुविधा होती है। खाने की व्यवस्थाएं हैं, भजन के लिए एक अलग टीम लगी है, लाइव प्रसारित करने के लिए एक अलग टीम लगी है, VIP दर्शकों के बैठने के लिए अलग लाइन बनी हुई है, कथाकार महंगी गाड़ियों से आते हैं, उनकी गाड़ी बिल्कुल मंच के समीप तक आती है, उनके लिए तमाम प्रोटोकाल निर्धारित होता है। कथाकार की भी आरती होती है, अगर प्रसंग में राम-जन्म हो रहा है तो बच्चों को सजाया जाता है, सजावट द्वारा माहौल क्रिएट किया जाता है, भूमिकाएं तय होती हैं, नृत्य करने के लिए कभी-कभी पारंगत लोग आते हैं, चुनावी चर्चे भी हो जाते हैं और ‘एकदम सरल और सरस रामकथा’ पीछे हो कर कथाकार और इवेंट मैनेजमेंट हावी हो जाता है ..
.. और हमें पूरे इस माहौल को देख कर लगता है कि हम असल धर्म को जी रहे हैं। असल में ये ‘राम जी के किसी प्रसंग’ का लाइट एंड साउंड शो से अधिक कुछ नहीं है। हजारों राम-कथाकारों के होते हुए भी अगर देश में हर रामनवमी के दिन ‘हर बहन को रावण जैसा भाई मिले’ और ‘रावण जैसा चरित्र अपनाना कठिन है’ जैसे मैसेज वायरल हों तो क्या राम-कथाकारों की जिम्मेदारी नहीं तय होनी चाहिए! असल बात यही है कि ज्यादा से ज्यादा श्रोताओं तक पहुंचने की होड़ ने कथा के मूल को ही छोड़ दिया है। रामकथा का अंतिम सत्य ‘आँसू’ है, चाहें वो प्रसन्नता में आये या वियोग को सुनकर। इसके अतिरिक्त तो हम सबकी दादी-नानी भी राम-कथाकार ही थीं, बस हम ही समझ नहीं पाए थे।
एक लाइन में कहूँ तो राम-कथा स्वयं में श्वांस लेती हुई कहानी है, ये कहने वाले की क्षमता पर नहीं, अपने बल पर चलती है। फिर जब इस कहानी की सफलता और असफलता कहने वाले पर तय नहीं है तो ‘कथाकार’ की भूमिका को किसी अन्य को क्यों देना ! इस भूमिका को आप ही अपने बच्चों के लिए निभाइये ..

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