हमारे धर्म में ईश्वर से डरने का कोई विधान नहीं इसलिए यहाँ पर कोई उसे ‘प्रेमी’ मान कर उसका हो जाता है, कोई उसे ‘पुत्र स्वरुप’ लड्डू गोपाल के रूप में स्वीकार कर लेता है, कोई उसे ‘पिता स्वरुप’ शिव या ब्रह्मा मान लेता है, कोई उसे ‘माता’ के तौर पर स्वीकार कर लेता है और कोई उसे वृन्दावन सरीखी ‘गाली देकर’ उसका हो जाता है।
हनुमान जी चरण में बैठकर पूज्य हो गए तो स्वामी रामकृष्ण काली को जूठे फल चढ़ा कर। हमारे यहाँ धार्मिक होना श्रेष्ठता की निशानी नहीं, तभी शिव का सबसे बड़ा भक्त रावण जब मारा जाता है तो देवगण ऊपर से फूल गिराते हैं।
हमारे यहाँ दैनिक दिनचर्या तक में हमारे महाग्रन्थ और आराध्य के नाम यूँ ही परिहास में शामिल हो जाते हैं –
.ज्यादा पुराण ना बाचों
.घर को महाभारत बना दिया है
.ये है रामराज्य की हकीकत
.दिमाग खराब है इसीलिए किशन कन्हैया बना घूम रहा है
हम अपने खाने से पहले ईश्वर के लिए एक भोग निकालते हैं, हम अपने बच्चों का नाम ईश्वर के नाम पर रख कर भी उसे डांटते हैं और हम ईश्वर की निंदा/उलाहना भी मनोयोग से सुनते/करते हैं, जानते हैं क्यों ! क्यूँकि ईश्वर हमारे लिए हमारे परिवार का हिस्सा है।
जिस धर्म में पूजा करने का कोई एक सर्वमान्य नियम नहीं, जिस धर्म में ईश्वर को गुरु से लेकर भिखारी तक में देखने का दर्शन हो, जिस धर्म में ईश्वर की कथा लोग अपने विवेक से सुनाते रहे हों, जिस धर्म में ईश्वर का चेहरा हर कोई अपने हिसाब से तय कर सकता हो… अगर उस धर्म के विषय में कुछ लोगों को लगता है कि वो शिव विग्रह का अपमान करके किसी को चिढ़ा रहे हैं तो उनकी बुद्धि पर तरस आता है।
ईश्वर उन सभी मंद बुद्धियों को सद्बुद्धि दे