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द इंटरनेशनल बुकर प्राइज बनाम हिंदी

Umrao Vivek

by Umrao Vivek Samajik Yayavar
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देख रहा हूं कि हंगामा पड़ा हुआ है। कोई हिंदी-हिंदी का अलाप लगा रहा है, तो कोई विरोध में राग अलाप रहा है। मजेदार बात यह है कि समर्थन व विरोध दोनों पक्षों के लोग (चंद अपवाद छोड़) मनमर्जी तर्क, वितर्क, कुतर्क भिड़ाए हुए एक तरह से पिले जैसे पड़े हैं। कुछ लोग तो बेफिजूल तर्क वितर्क से हावी होने की जुगत में नोबल साहित्य-पुरस्कार को भी घसीट ला रहे हैं। जबकि बुकर व नोबल-साहित्य पुरस्कारों का चरित्र बिलकुल ही अलग है। धींगामुस्ती करने में जुटे दोनों पक्षों के लोगों ने यह जहमत तक नहीं उठाई कि द इंटरनेशनल बुकर प्राइज के नियम व शर्तों को ही पढ़ लिया होता।
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द इंटरनेशनल बुकर प्राइज हो या द बुकर प्राइज दोनों एक ही संस्था द्वारा दिए जाते हैं और दोनों ही पुरस्कार अंग्रेजी भाषा के लिए दिए जाते हैं। अंतर यह है कि एक मूलतः अंग्रेजी में लिखे गए नॉवल को मिलता है, दूसरा किसी अन्य भाषा में लिखे गए नॉवल के अंग्रेजी अनुवाद में किए गए नॉवल को मिलता है।
सबसे जरूरी नियम व शर्तों जो हैं वे निम्न हैं
अनुवाद किया गया नॉवल का प्रकाशन यूनाइटेड किंगडम (इंग्लैंड व आयरलैंड) के ही प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित किया गया हो। प्रकाशक भी ऐसे जिनका कर व लाभ इत्यादि यूनाइटेड किंगडम को जाता हो। प्रकाशक का पंजीकरण यूनाइटेड किंगडम में हो। प्रकाशन की किताबें यूनाइटेड किंगडम के अंदर बुकस्टोर्स में बेची जाती हों।
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लेखक या किसी व्यक्ति द्वारा प्रकाशन मान्य नहीं होता है। स्व-प्रकाशन मान्य नहीं होता है, वैयक्तिक प्रकाशन मान्य नहीं होता है।
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नॉवल या कहानियों का संग्रह होना चाहिए।
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आवेदन प्रकाशक ही कर सकता है, लेखक या लेखक का कोई एजेंट नहीं। एक प्रकाशक एक से अधिक किताबों का आवेदन कर सकता है। मतलब यह कि आवेदक केवल यूनाइटेड किंगडम का ही प्रकाशक हो सकता है।
चलते-चलते
नियम व शर्तों के कारण अधिकतर लेखकों की किताबें (भले ही बहुत ही बेहतरीन हों) तो बुकर पुरस्कारों के लिए आवेदन तक कर पाने की अहर्ता नहीं रखतीं हैं। कुछ समय पहले तक तो एक नियम यह भी था कि केवल उसी लेखक की किताब आवेदन कर सकती थी जो कामनवेल्थ व कुछ अफ्रीकी देशों का निवासी हो और किताब का प्रकाशन यूनाइटेड किंगडम के प्रकाशन द्वारा हुआ हो। बाद में कामनवेल्थ देशों वाली शर्त हटा दी गई थी।
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जिन लोगों को पढ़ने का शौक है, यदि वे द इंटरनेशनल बुकर प्राइज की किताबों को पढ़ते हैं (दोनों मूलतः लिखी गई व अनुवाद की गई), तो उनको भलीभांति मालूम है कि द इंटरनेशनल बुकर प्राइज में असली व पूरा खेल अनुवादक व यूनाइटेड किंगडम के प्रकाशक का होता है।
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जिन लोगों को मेरी बात अटपटी लग रही हो, वे ईमानदारी के साथ बिना अपना तड़का लगाए, बिना तर्क कुतर्क जोड़े घटाए, बिना झूठ बोले। हिंदी वाली नॉवल व अंग्रेजी में अनुवाद वाली नॉवल पढ़ कर देख लें।
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कहने के लिए अनुवाद होगा, लेकिन दोनों किताबों में भारी अंतर होगा, यहां तक कि कंटेट व प्रस्तुतीकरण तक में अंतर होगा। किताब का टाइटल बदल गया, प्रकाशक बदल गया, किताब की भाषा बदल गई, यहां तक कि किताब का कंटेट व प्रस्तुतीकरण बदल गया। ध्यान से देखा जाए तो अनुवाद की गई किताब अपने आप में एक अलग ही किताब हो गई।
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बुकर वालों का यह मानना रहता है कि लेखक ने कह दिया कि अनुवाद है, तो मान लिया कि अनुवाद है (वह बात अलग है कि अनुवाद की गई किताब अपने आप में ही अलग किताब हो गई हो)। ऐसी कोई जांच नहीं होती कि मूल किताब का अनुवाद कैसा हुआ है।
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यही कारण है कि प्राइज का पैसा लेखक व अनुवादक में आधा-आधा बटता है। क्योंकि अंग्रेजी में अनूदित किताब को भी अपने आप में लेखन माना जाता है। एक तरह से सह-लेखक जैसे माने जाते हैं।
द इंटरनेशनल बुकर प्राइज सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी भाषा व यूनाइटेड किंगडम के प्रकाशकों के पोषण के लिए दिया जाता है। किसी भी और भाषा से इस प्राइज का लेना-देना नहीं होता। जिस लेखिका की किताब के अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशन को यह प्राइज मिला है, वह लेखिका यदि यही किताब किसी और भाषा में भी लिखती, तब भी उसका अनुवाद होता तो पुरस्कार मिलता।
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इसलिए दोनों लेखिकाओं (मूल किताब व अनुवाद किताब) को बधाई

दीजिए और आगे बढ़िए। इसको जबरदस्ती हिंदी भाषा के आदर सम्मान इत्यादि से नहीं जोड़िए। यदि आपको हिंदी का सम्मान करना है तो अपने बच्चों से हिंदी बोलिए, खुद भी हिंदी बोलिए पढ़िए लिखिए, बच्चों को हिंदी बोलना पढ़ना लिखना सिखाइए। सामने वाला आदमी भले ही कितना बड़ा तुर्रमखां हो, यदि हिंदी जानता है तो उससे हिंदी में संवाद करने का साहस रखिए, शोबाजी के लिए या खुद को श्रेष्ठ दिखाने के लिए अंग्रेजी में संवाद करने का ढोंग नहीं कीजिए। हिंदी का सम्मान अपने आप हो जाएगा, पहले खुद से शुरू कीजिए, अपने परिवार से शुरू कीजिए।

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