एक पाठक ने लेखक की रचना पर एक लम्बी चौड़ी समालोचना भेजी।
समालोचना पूर्णतः, लेखक के कलम की अनुशंसा के पक्ष में थी। लेकिन अंतिम पंक्ति में जो लिखा गया वो लेखक के लिए शोध एवं चिंतन का विषय हो गया…
पाठक ने अंतिम पंक्ति में लिखा था कि- ” आपकी शोच बेहद व्यापक, लोकतांत्रिक तथा गहरी है… कैसे शोचते हैं आप!! अद्भुत है आपका शोचना
लेखक- ” प्रिय! आपका अनुशंसा पत्र पाकर… आनन्दित, आह्लादित एवं अभिभूत हुआ। लेकिन आपके द्वारा लिखे गये सिर्फ एक शब्द पर,मेरा लेखन मोक्ष को छूने में अटक रहा है.. प्रिय आपने अपने अनुशंसा पत्र में ‘शोच’ शब्द को बेहद धड़ल्ले तथा बेबाकी से उतारा है.. अब सिर्फ इतना बता दीजिए कि आप मेरे ‘सोच’ की प्रशंसा कर रहे हैं या मेरे ‘शौच’ की.. दरअसल आप ‘सोच’ एवं ‘शौच’ के बिल्कुल बीचोबीच खड़े हैं..
आप एक कदम पीछे आकर ‘श’ के स्थान पर ‘सपेरा’ वाला ‘स’ लगाकर सोचने पर मजबूर कर सकते थे या अपना एक कदम आगे बढ़ाकर ‘ओ’ की मात्रा जगह ‘औ’ की मात्रा लगा शौच करने हेतु मजबूर कर सकते थे… लेकिन आपने तो आधे पर लटका दिया। प्रिय! आप यकीं नहीं करेंगे मैं पिछले तीन दिन से न तो ठीक से सोच पाया और न ही तसल्ली से शौच कर पाया..
अब आप ही बताएं…
क्या है रास्ता!
एक तरफ सोच है…एक तरफ शौचना।
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