Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण किष्किंधा काण्ड भाग 70
श्रीराम की आज्ञा पाकर सुग्रीव आदि सभी वानर किष्किन्धापुरी में चले गए। नगर में प्रवेश करने पर सुग्रीव को देखकर प्रजाजनों ने धरती पर माथा टेककर सम्मानपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। उन सबका अभिवादन स्वीकार करके सुग्रीव ने अपने भाई के अंतःपुर में प्रवेश किया। वहाँ भी उनका भव्य स्वागत किया गया।
अन्तःपुर के सुहृद उनके लिए स्वर्णभूषित श्वेत छत्र, सोने के डंडों वाले दो सफेद चँवर, अनेक प्रकार के रत्न, बीज, औषधियाँ,श्वेत पुष्प, श्वेत वस्त्र, श्वेत अनुलेपन, सुगन्धित पुष्पों की मालाएँ, चन्दन, अनेक सुगन्धित पदार्थ, अक्षत, सोना, प्रियंगु, शहद, घी, दही, व्याघ्रचर्म, सुन्दर बहुमूल्य जूते, अंगराग आदि सामग्री लेकर उपस्थित हुए। सोलह सुन्दरी कन्याएँ भी सुग्रीव के पास आईं।
इसके पश्चात श्रेष्ठ ब्राह्मणों को विविध प्रकार के रत्न, वस्त्र तथा भोजन आदि से संतुष्ट करने के बाद सुग्रीव के राज्याभिषेक की तैयारी आरंभ हुई। सबसे पहले मंत्रोच्चार के साथ वेदी पर अग्नि प्रज्वलित करके आहुति दी गई। फिर रंग-बिरंगी पुष्पमालाओं से सुशोभित अट्टालिका पर एक सोने का सिंहासन रखा गया और फिर उसके ऊपर एक सुन्दर बिछौने पर सुग्रीव को पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बिठाया गया।
फिर अनेक नदियों, तीर्थों और सभी समुद्रों से लाए गए जल को एकत्र करके सोने के कलशों में रखा गया। हनुमान, जाम्बवान आदि श्रेष्ठ वानरों ने शास्त्रोक्त विधि के अनुसार साँड़ के सींगों द्वारा उस जल से सुग्रीव का अभिषेक किया। फिर सुग्रीव ने अंगद को गले लगाकर युवराज पद पर उसका भी अभिषेक किया। इसके बाद सुग्रीव ने श्रीराम के पास जाकर कार्यक्रम संपन्न हो जाने की सूचना दी और फिर वह किष्किन्धा को लौट गया।
सुग्रीव के किष्किन्धा चले जाने पर श्रीराम भी अपने भाई लक्ष्मण के साथ प्रस्रवणगिरि पर रहने चले गए। वहाँ चीतों और मृगों की आवाज गूँजती रहती थी। भयंकर गर्जना करने वाले सिंह, अनेक रीछ, वानर, लंगूर, बिलाव आदि प्राणी वहाँ निवास करते थे। अनेक प्रकार की झाड़ियों, लताओं व घने वृक्षों से वह स्थान चारों ओर से ढँका हुआ था।
उस पर्वत के शिखर पर एक बड़ी और विस्तृत गुफा थी। दोनों भाइयों ने उसी को अपना आश्रय-स्थल बनाया। उस गुफा के पास ही एक नदी बहती थी। उसमें रहने वाले मेंढक कभी-कभी उछलते-कूदते गुफा तक भी चले आते थे। आस-पास कई प्रकार के पक्षी चहकते रहते थे और मोरों की बोली भी गूँजती रहती थी। मालती, कुन्दन, सिन्दुवार, शिरीष, कदम्ब, अर्जुन और सर्ज के फूल उस स्थान की शोभा बढ़ाते थे।
वह गुफा कुछ ऊँचाई पर होने के कारण वहाँ से एक ओर सरोवर दिखाई देता था, जिसमें कमल के रमणीय फूल खिले हुए थे और दूसरी ओर तुंगभद्रा नदी भी दिखती थी। उस नदी के किनारे चंदन, तिलक, साल, तमाल, अतिमुक्तक, पद्मक, सरल, शोक, जलबेंत, तिमिद, बकुल, केतक, हिंताल, तिनिश, नीप, स्थलबेंत, अमलतास आदि अनेक सुन्दर वृक्ष थे। गुफा के बाहर ही एक बहुत बड़ी और समतल शिला थी, जिस पर सुविधा से बैठा जा सकता था। किष्किन्धापुरी भी वहाँ से कुछ ही दूरी पर थी और नगर में होने वाले गीत-संगीत की ध्वनि गुफा तक भी सुनाई देती थी।
उस रमणीय परिसर में दोनों भाई निवास करने लगे, किन्तु जानकी के बिना श्रीराम को वहाँ तनिक भी सुख नहीं मिलता था। रात में बहुत देर तक उन्हें नींद नहीं आती थी। कई बार सीता के वियोग में शोकाकुल होकर वे आँसू बहाने लगते थे।
उनके दुःख को देखकर लक्ष्मण ने विनयपूर्वक उनसे कहा, “वीर! आपको इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि शोक करने से सभी मनोरथ नष्ट हो जाते हैं। आप तो कर्मवीर, आस्तिक, धर्मात्मा व पराक्रमी हैं। यदि आप शोक करने लगेंगे, तो युद्धभूमि में उस राक्षस शत्रु का वध करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे। अतः शोक को उखाड़ फेंकिये। आप तो अपने पराक्रम से पूरी पृथ्वी को उलट सकते हैं, फिर उस दुष्ट रावण का संहार करना आपके लिए कौन-सी बड़ी बात है? अब वर्षाकाल आ गया है। आप केवल शरद ऋतु की प्रतीक्षा कीजिए। फिर सेनासहित रावण का वध कीजिएगा।”
यह सुनकर श्रीराम को कुछ सांत्वना मिली तथा उन्होंने शोक को त्याग दिया।
इस प्रकार बहुत-सा समय बीत गया। बुद्धिमान हनुमान जी ने एक दिन देखा कि आकाश निर्मल हो गया है। अब न बिजली चमकती है और न बादल दिखाई देते हैं, अर्थात वर्षा ऋतु अब बीत चुकी है। तब उनके मन में विचार आया कि ‘अपना प्रयोजन सिद्ध हो जाने के बाद से महाराज सुग्रीव का मन धर्म और अर्थ में नहीं लगता है और वे केवल आमोद-प्रमोद में ही मग्न रहते हैं। राज्य का समस्त दायित्व अपने मंत्रियों को सौंपकर वे अपना सारा समय रुमा व तारा जैसी सुन्दर रानियों तथा अन्तःपुर की अन्य युवतियों के साथ भोग-विलास में ही बिताते हैं।’
हनुमान जी अत्यंत बुद्धिमान एवं नीतिज्ञ थे। वे योग्य-अयोग्य को भली-भाँति जानते थे। कब क्या करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए, इसका उन्हें पूर्ण ज्ञान था। बातचीत की कला में भी वे निपुण थे। उन्होंने सोचा कि अपने कर्तव्य को भूलकर सुग्रीव स्वेच्छाचारी हो गए हैं, जो कि उचित नहीं है।
अतः हनुमान जी स्वयं सुग्रीव के पास गए और उन्होंने उसके हित की यह बात कही, “राजन! आपने राज्य और संपदा दोनों प्राप्त कर ली, किन्तु आपके मित्र का कार्य अभी पूर्ण नहीं हुआ है। जो मनुष्य अपना कार्य निकल जाने पर मित्र के कार्य में सहयोग नहीं करता है, उसे अवश्य ही कष्ट भोगना पड़ता है। जो राजा अपने राजकोष, सेना, मित्रों और शरीर को अपने वश में रखकर सबके साथ उचित व्यवहार करता है, उसका यश और समृद्धि सदा बढ़ती जाती है।”
“परम बुद्धिमान श्रीराम चिरकाल तक मित्रता निभाने वालों में से हैं। उन्हें अपना कार्य पूर्ण करना है, किन्तु फिर भी मित्रता के संकोशवश वे आपसे कुछ नहीं कहते हैं। उन्होंने आपका कार्य पहले ही सिद्ध कर दिया है, अतः आप भी अब उनके कार्य में विलंब न कीजिए। शीघ्र ही प्रमुख वानरों को बुलाकर इस कार्य की आज्ञा दीजिए। श्रीराम के टोकने से पहले ही यदि हमने यह कार्य नहीं किया, तो इस विलंब के लिए आपकी बड़ी निन्दा होगी।”
“श्रीराम इतने पराक्रमी हैं कि वे अपने बाणों से देवताओं, असुरों, दानवों, गन्धर्वों, यक्षों आदि सबको परास्त कर सकते हैं। आपके लिए उन्होंने वाली जैसे पराक्रमी योद्धा का भी वध कर दिया था। अतः अब हमें भी आकाश-पाताल, जल-थल में चाहे सीता जहाँ भी हों, उन्हें खोजकर श्रीराम का कार्य संपन्न करना चाहिए।”
हनुमान जी की बात समझकर बुद्धिमान सुग्रीव ने तुरंत ही नील नामक वानर को बुलाया और सभी दिशाओं से वानर सेनाओं को एकत्र करने की आज्ञा दी। उसने नील से कहा, “जो भी वानर यहाँ पहुँचने में पन्द्रह दिनों से अधिक समय लगाएगा, उसे प्राण-दंड दिया जाएगा। अतः दूर-दूर तक के सभी वानरों से कह दो कि वे शीघ्र ही यहाँ उपस्थित हो जाएँ।”
ऐसा आदेश देकर सुग्रीव अपने महल में चला गया।
उधर श्रीराम ने भी सोचा कि ‘अब आकाश निर्मल हो गया है, शरद ऋतु आ गई है, किन्तु अभी तक सीता का कुछ पता नहीं लगा। अपना राज्य व स्त्रियों को पाकर सुग्रीव कामासक्त हो गया है और अपने वचन को भूल गया है।’
यह सोचते-सोचते उन्हें सीता की याद सताने लगी तथा उनका मन क्रोध व शोक से व्याकुल हो गया। तब उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! मैं अपनी स्त्री से बिछड़ा हुआ हूँ और मेरा राज्य भी छीनकर मुझे निष्कासित कर दिया गया है। ऐसी अवस्था में घर से इतनी दूर मैं सुग्रीव से सहायता लेने आया हूँ, किन्तु वह दुर्बुद्धि वानर भी अपना काम निकल जाने पर अब मेरा तिरस्कार कर रहा है। अवश्य ही वह मेरे पराक्रम को भूल गया है। तभी उसे यह चिंता नहीं है कि जो वाली को मार सकता है, वह उसके भी प्राण ले सकता है।”
“उसने प्रतिज्ञा की थी कि वर्षा-काल समाप्त होते ही सीता की खोज आरंभ कर दी जाएगी, किन्तु अब वह अपने आमोद-प्रमोद मग्न होकर अपनी प्रतिज्ञा भूल गया है तथा हमारा निरादर कर रहा है। अतः तुम सुग्रीव के पास जाओ और उसे मेरे रोष तथा पराक्रम का स्मरण कराओ। साथ ही उसे मेरा यह सन्देश भी सुना देना कि ‘वाली अपने प्राण गँवाकर जिस मार्ग से गया है, वह मृत्यु का द्वार अभी बंद नहीं हुआ है। यदि तुम उस मार्ग पर नहीं जाना चाहते हो, तो शीघ्र ही अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करो। वाली तो रणक्षेत्र में मेरे हाथों अकेला ही मारा गया था, किन्तु तुमने यदि अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया, तो मैं बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हें नष्ट कर दूँगा।”
यह सुनकर क्रोधित लक्ष्मण ने कहा, “श्रीराम! राज्य को पाकर सुग्रीव को अहंकार हो गया है। मैं अभी जाकर उसके प्राण ले लेता हूँ और राज्य अंगद को दे देता हूँ। अंगद ही अब सीता की खोज करे।”
इस पर श्रीराम ने उन्हें समझाया कि “लक्ष्मण! इस प्रकार मित्र के वध की बात न करो। अपने क्रोध पर नियंत्रण रखो। तुम सुग्रीव के पास जाकर उसे मेरी मित्रता का स्मरण दिलाओ और केवल मेरा संदेश उस तक पहुँचाओ।”
तब लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और धनुष-बाण लेकर बड़े वेग से किष्किन्धा की ओर बढ़े।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस)

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