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कांतारा! बुता कोला

Om Lavaniya

by ओम लवानिया
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लेखक-निर्देशक ऋषभ शेट्टी ने साउथ रीजन की फोक संस्कृति से कंटेंट उठाया है और उसे अपनी कहानी व किरदार दिए है। बुता कोला या भूता कोला परिवेश में प्लॉट डवलप किया है। कहानी 1847 कालखंड से शेप लेती है और किरदारों को छोड़ती हुई, 1970 और 1990 के इर्दगिर्द स्थिरता लेती है। कहानी कंटेंट के केंद्र में पंजुर्लि दैव को सूत्रधार बनाती है और के सिवा, लीला, मुरलीधर, देवेंद्र सुत्तूरु, सुधाकर, गुरुवा आदि महत्वपूर्ण किरदारों को स्क्रीन प्ले में शामिल करती है। इससे स्क्रीन प्ले इंटरेस्टिंग शेप लेता चला जाता है।
लेखक ने बड़े धैर्य से फोक संस्कृति के कंटेंट को समझा है फिर उसे अपने किरदार सौंपे है। अनुसूचित जनजाति की दैवीय प्रथा (ऐसी ही प्रथा नॉर्थ के राजस्थान में इसी वर्ग द्वारा पूजी जाती है। इसे गवरी, राई नृत्य से जाना जाता है। सावन-भादो के पीरियड में 40 दिन लंबे लोक कार्यक्रम को पुरुष रचते है। मान्यता है कि इसमें भाग लेने वाले पुरुषों में दैवीय आत्मा प्रवास करती है) को दिल व दिमाग दोनों के कॉम्बिनेशन से लिखा है। 150 मिनट का दर्शकों पर थ्रिलिंग व सस्पेंस भरा विश्वास बनाए रखता है। कोई सिंगल फ्रेम भी डिस्टर्ब नहीं करती है। लेखक ने लोक कथा, दैवीय रीति की थीम में मनुष्य और प्रकृति के बीच अटूट संघर्ष दिखलाने की कोशिश की है। कि कैसे इस प्रथा ने अपने रहस्यमय जंगल को सुरक्षित करने में सहायता करती है।
ऋषभ के कंटेंट में सबसे अहम बैक ग्राउंड स्कोर रहता है, हर सीक्वेंस के अनुरूप बीजीएम रखा जाता है। जो काफ़ी अट्रेक्टिव रहता है। बी.अजनीश लोकनाथी ने ऋषभ उनकी स्टाइल में बीजीएम दिया है। एक्शन सीक्वेंस और क्लाइमैक्स में उम्दा पकड़ रखता है। अच्छे से ध्यान आकर्षित करता है।
ऋषभ शेट्टी! लेखक-निर्देशक और अभिनेता इन तीनों क्षेत्रों में इस युवा कलाकार ने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में बड़ी लकीर खींच दी है। जब सारे लेखक-निर्देशक कॉपी-पेस्ट टूल का इस्तेमाल करके रीमेक बना रहे है वहाँ ऋषभ ओरिजनल कंटेंट परोसते है। ऐसा नहीं है कि इस कंटेंट को लेने दूसरे गोले पर जाना पड़ा, यहीं भारतीयता से निकला है। बस आरएन्डडी में वक्त दिया है।
ऋषभ का शिवा…. अहा, उम्दा और इम्प्रेसिव है। एक्सप्रेशन, डायलॉग डिलवरी व बॉडी लैंग्वेज माइंड ब्लोइंग, परफेक्ट, ब्लास्टिक है। कंटेंट की आखिर की फ्रेम्स में सुन्न कर दिया है। अभिनय जौहर का पीक पॉइंट दर्शकों के बीच में फेंका था। यक़ीनन, ऋषभ ने जब कहानी व किरदार लिखें होंगे, शिवा की रेंज में खुद को पाया होगा। क्योंकि इनके अलावे कोई दूजा कलाकार इसे ऐसा अंजाम न दे सकता है। एनर्जी और ट्रांसफॉर्मेशन लाजवाब रखा है।
किशोर! शिवा के प्रतिद्वंद्वी डीआरएफओ मुरलीधर से मिले है। सबसे अव्वल देसी रॉक नजर आए है। अच्छी कद काठी में मुरलीधर को बॉडी स्पेस दिया है। शिवा और मुरली की फ्रेम थ्रिलर और इंगेजिंग है। किशोर ने मुरली को बड़े अच्छे से दर्शकों के सामने रखा है। हाव-भाव भी इतने डिफाइन है जो गुड़ व बैड के फ़र्क को साफ़ करते है।
अच्युत कुमार! कंटेंट में राजा के वंशज देवेंद्र से मिले है। इनकी प्रिजेंस से लग जाता है। कि डबल शेडेड किरदार है।
बाक़ी सभी कलाकारों ने कहानी के हिसाब से किरदार पकड़े है और दर्शकों में कनेक्टिंग नोटिफिकेशन भी जारी करते है।
ऐसे कंटेंट, जब जंगल से कहानी गुजरने वाली होती है। तब सिनेमेटोग्राफर की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। दरअसल, जंगल के सीक्वेंस को कैमरे में कैद करना और सीन्स में मर्म बनाए रखना बड़ा टास्क है। अरविंद एस. कश्यप ने ऋषभ शेट्टी की कहानी को बड़े सलीके से लिया है। एक्शन सीक्वेंस जितने बेहतरी से कोरियोग्राफ हुए है उतने ही शानदार ढंग से अरविंद ने अपनी जद में लिया है। इसके आगे की कड़ी में एडीटिंग टेबल पर के एम प्रकाशी
और प्रतीक शेट्टी ने कंटेंट को कसावट भरा स्वरूप दिया है। फोक कोला सीक्वेंस को प्रभावी बनाया है। कहानी से शिवा का इंट्रोडक्शन, सिनेमाई भाषा में कहे एंट्री सीन, कैसे होते है। इसे देखिए….।
निर्देशन! ऋषभ ने दिल के भीतर से पूरे कंटेंट को सिल्वर स्क्रीन पर सौंपा है। ओरिजन रीजन रिलीज के बाद हिंदी डब की डिमांड इनकी मेहनत को दर्शाती है।
ऋषभ का माइंड सेट या कहे फोकस अपनी भारतीयता पर है कैसे इसकी कहानियों व किरदारों को नए जॉनर में दर्शकों के बीच, यूथ के समक्ष रखा जाए। भारत में कितनी विविधताओं का वास है, जिन संस्कृति को अंधविश्वास की आड़ में नकारने का अभियान चलाया जा रहा है। लोगों को भारतीयता की जड़ों से काटकर, उनकी मूल संस्कृति से दूर किया जा रहा है। मिशनरियों द्वारा बड़े स्केल पर ऐसे ही एरिया में लोगों के ब्रेन वाश किए जा रहे है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत सरकारों ने भी इन लोगों को अपने हाल पर छोड़ दिया है।
इस कंटेंट के कॉन्टेक्स्ट में उत्तर प्रदेश के ब्रज सासनी-हाथरस के इलाकों में धुलेरी के दूसरे दिन ‘काली’ निकलती है। मने काली माता की भेषभूषा में पुरुष नृत्य करते है। हर गली-मोहल्ला और गाँवों से काली का रेला गुजरता है। लोग अपने घरों में बुलाते है। ताकि घर की शुद्धि हो जाए। ऐसी छोटी छोटी मान्यताएं भारत के हर कोने में बसी हुई है। कुछ साजिशें इन्हें खत्म कर देना चाहती है बल्कि लुप्त करने में कामयाब हो रही है। राजस्थान में गवरी के इतर लोगों का देवरा यानी भोपा देव वाणी में कट्टर विश्वास करते है। कोई नया काम हो, मुश्किल वक्त हो, देवरे पर जाकर अपने दैव से पूछते है। सलाह लेते है। उनसे पूछे बिना कोई कार्य न करते है। हालांकि वर्तमान तथाकथित मॉर्डन परिवेश में ऐसे विश्वासों तोड़ा जा रहा है।
कांतारा ने साउथ रीजन के उन रीति-रिवाजों को एड्रेस किया है। जिनपर लोग कट्टर विश्वास करते थे। पूजते थे। सनातन में इसी कट्टरता में सेंधमारी हुई है। कट्टरपन खत्म किया जा रहा है। जिससे आगे लोगों को सनातनी जड़ों से आसानी से काट दिया जाए। सभी ने ऋषभ को देखना चाहिए, बेहतरीन सिनेमा फेंका है। रीमेक के दौर में ओरिजनल की छाप सुकून देती है।
साउथ के कंटेंट को इतना प्रेम क्यों मिलता है तो उन्हें ऋषभ को देखना चाहिए। जिन्हें रियल सिनेमा देखना है। तो वे ऋषभ को देखें, जो बॉलीवुड से ऊब चुके है। वे थैरेपी के नजरिये से ऋषभ को देखें।

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