हमारे भीतर सर्जना है अपरिपक्व अवस्था में ही तुकबंदी के रूप में व्यक्त होती और आप में यह विश्वास या भ्रम जगाती है कि आप कवि हैं । आप कविता करते जिंदगी गुजार देते हैं और किसी दूसरे काम के नहीं रह जाते। सोचते हैं, यही प्रतिभा की परम लब्धि है। जो सर्जनात्मता की उच्चतर भूमिकाओं की तलाश करते हैं, वे तत्वदर्शी बनते हैं, दार्शनिक बनते हैं, आविष्कारक बनते हैं। मैं नहीं जानता मैं क्या हूं, पर यह जानता हूं कि कविता ही मेरा खेत है।
बहुविद को लोग अपने खाने में जगह नहीं देते इसलिए वह बहुत कुछ होने बाद भी, सर्वत्र अपनी अलग छाप छोड़ने के बाद भी, कहीं का नहीं रह जाता। यह तत्वज्ञान नामवर जी ने किसी प्रसंग में दिया था और इसे मैंने बोधवाक्य बना लिया। पर दबाव को रोकना वश में न था। एक दौर था जिसमें मैं कविताएं लिख तो लेता था, पर उनको अलग दर्ज कर लेता था। फिर सदुपदेश का मारा, दर्ज करना भी छोड़ दिया। पर जिन दिनों अपनी पोस्ट पूरी न कर पाता हूं, अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए शेर जैसा कुछ गढ़कर पोस्ट कर देता हूं क्या वही मेरा अपना स्वभाव नहीं?
सर्जना की दुनिया में भावविभोर हो कर लिखने जैसी कोई बात न थी। ऐसे दो अग्रजों का पता था – एलिएट और हेमिंग्वे जिनके कारण मैं ग्लानि से बच जाता हूं कि कविता या लेखन भावानुभूति की प्भीरतीक्षा के बिना भी संभव है।
अपने पर लिखे को संभालने में लगा हूं. उन कविताओं को प्रस्तुत करके हाजिरी देना चाहूंगा जिन्हें जगजाहिर न किया। आज की कविता मृत्यु पर है. 1997 की।